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________________ ४२ आप्तमीमांसा-तत्त्वदीपिका जन उनके चरणोंकी वन्दना करते थे जिससे उनके चूड़ामणिकी किरणोंके द्वारा अकलंकके चरणोंके नरवोंकी किरणें नाना रूप धारण कर लेती थीं । स्याद्वादरत्नाकरके रचयिता श्वेताम्बराचार्य देवसूरिने उन्हें मतान्तरोंके दोषोंका उद्भावक बतलाया है' । महाकवि वादिराज सूरि लिखते हैं कि वे तर्कभूवल्लभ अकलंक जयवन्त हों, जिन्होंने जगतकी वस्तुओंके अपहर्ता शून्यवादी बौद्ध दस्यु - ओंको दण्डित किया । शुभचन्द्राचार्यने तो मुग्ध होकर उनकी पुण्य सरस्वतीको अनेकान्त गगनकी चन्द्रलेखा लिखा है । इसी प्रकार ब्रह्मचारी अजितने अकलंकको बौद्धबुद्धिवैधव्यदीक्षागुरु बतलाया है । अर्थात् अकलंक द्वारा बौद्धोंकी बुद्धि विधवा हो गयी या उनकी बुद्धिको वैधव्यको दीक्षा दी गयी । पद्मप्रभमलधारिदेवने नियमसारकी तात्पर्यवृत्ति के प्रारंभ में उन्हें 'तर्काब्जार्क' अर्थात् तर्करूपी कमलोंके विकासके लिए सूर्य बतलाया है । इसीप्रकार अनेक शिलालेखों में वादिसिंह, स्याद्वादामोघजिह्व, समयदीपक, उद्बोधितभव्यकमल, ताराविजेता, जिनमत कुवलयशशांक, बौद्धवादिविजेता शास्त्रविदग्रेसर, मिथ्यान्धकारभेदक, महर्द्धिक और देवागमके भाष्यकारके रूपमें अकलंकका स्मरण किया गया है । जोडि बसवनपुर में हुण्डिसिद्दन चिक्कके खेत्तके पास एक पाषाण पर उत्कीर्ण लेखमें लिखा है कि उस अकलंकदेवकी महिमाका वर्णन कौन कर सकता है, जिसके वचनरूपी खड्ग (तलवार) के प्रहारसे आहत होकर बुद्ध बुद्धिरहित होगया । जिस समय अकलंकने कार्यक्षेत्रमें पदार्पण किया वह समय बौद्धयुग १. प्रकटिततीर्थान्तरीयकलंकोऽप्यकलंकोप्याह । २. तर्कभूवल्लभो देवः स जयत्यकलंकधीः । जगद्द्रव्यमुषो येन दण्डिता शाक्यदस्यवः ।। ३. श्रीमद्भट्टाकलङ्कस्य पातु पुण्या सरस्वती । अनेकान्तमरुन्मार्गे चन्द्रलेखायितं यया ॥ ४. अकलंकगुरुर्जीयादकलंकपदेश्वर: 1 बौद्धानां बुद्धिवैधव्य दीक्षागुरुरुदाहृतः ॥ ५. तस्याकलङ्क देवस्य महिमा केन वर्ण्यते । यद्वाक्यखड्गघातेन हतो बुद्धो विबुद्धिः सः ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only -स्याद्वादरत्नाकर -पार्श्वनाथचरित - ज्ञानार्णव - हनुमच्चरित www.jainelibrary.org.
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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