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श्रीस्वामीसमन्तभद्रमुनेः कृतो आप्तमीमांसायाम् ' से ज्ञात होता है कि समन्तभद्र फणिमण्डलान्तर्गत उरगपुरके राजाके पुत्र थे । उरगपुर चोल राजाओंकी प्राचीन ऐतिहासिक राजधानी रही है। पुरानी त्रिचनापल्ली भी इसीको कहते हैं । कन्नड़ भाषाकी 'राजावली कथे' में समन्तभद्रका जन्म उत्पलिका ग्राममें हुआ लिखा है । संभव है कि उत्पलिका उरगपुरके अन्तर्गत ही कोई स्थान हो । उनके पिता एक राजा थे । अतः इतना निश्चित है कि समन्तभद्र एक राजपुत्र थे और दक्षिणके निवासी थे । इनका प्रारंभिक नाम शान्तिवर्मा था । डा० पं० पन्नालालजीने रत्नकरण्ड श्रावकाचारकी प्रस्तावना में यह सिद्ध किया है कि स्तुतिविद्याके अन्तिम पद्यसे 'शान्तिवर्मकृतं जिनस्तुतिशतं ' ये दो पद निकलते हैं ।
प्रस्तावना
आचार्य समन्तभद्र आत्मसाधना और लोकहितकी भावना से ओतप्रोत थे । अत: कांची (दक्षिण काशी) में जाकर दिगम्बर साधु बन गये थे । उन्होंने निम्न परिचय-पद्यमें
कांच्यां नग्नाटकोsहं मलमलिनतनुर्लाम्बुशे पाण्डुपिण्डः, पुण्ड्रो शाक्यभिक्षुः दशपुरनगरे मिष्टभोजी परिव्राट् । वाराणस्यामभूवं शशधरधवलः पाण्डुरंगस्तपस्वी, राजन् यस्यास्ति शक्तिः स वदतु पुरतो जैननिर्ग्रन्थवादी || अपने को कांचीका नग्नाटक (नग्नसाधु) और निर्ग्रन्थ जैनवादी लिखा है । ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ परिस्थितियों वश उनको कुछ दूसरे भेष भी धारण करना पड़े थे । किन्तु वे सब अस्थायी थे ।
समन्तभद्रका समय
समन्तभद्रके समयके विषयमें विद्वानोंमें मतभेद है । कुछ विद्वान् समन्तभद्रको पूज्यपाद देवनन्दि (पञ्चम शताब्दी ) के बादका मानते हैं, तो दूसरे विद्वान् पञ्चम शताब्दी के पहलेका । किन्तु प्रसिद्ध अन्वेषक और इतिहासज्ञ विद्वान् स्व० जुगलकिशोर जी मुख्तारने अपने स्वामी समन्तभद्र नामक महानिबन्ध में सप्रमाण यह सिद्ध किया है कि समन्तभद्र गृद्धपिच्छके बाद तथा पूज्यपादके पहले विक्रमकी दूसरी या तीसरी शताब्दी में हुए हैं । पूज्यपादने अपने जैनेन्द्रव्याकरणमें 'चतुष्टयं समन्तभद्रस्य' ( ४/५/१४० ) सूत्रके द्वारा समन्तभद्रका उल्लेख किया है । अतः वे पूज्यपादसे निश्चित ही पूर्ववर्ती हैं।
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