________________
आप्तमीमांसा-तत्त्वदीपिका तत्त्वोंको अपना विषय किये हुए है। उन्होंने समन्तभद्रको भव्यकलोकनयन अर्थात् भव्यजीवोंके हृदयोंमें स्थित अज्ञानान्धकारको दूर करके अन्तःप्रकाश करने तथा सन्मार्ग दिखलानेवाला अद्वितीय सूर्य और स्याद्वाद मार्गका पालक भी बतलाया है। शिवकोटि आचार्यने समन्तभद्रको भगवान महावीरके शासनरूपी समुद्रको बढ़ानेवाला चन्द्रमा लिखा है । वीरनन्दी आचार्यने चन्द्रप्रभचरितमें लिखा है कि मोतियोंकी मालाकी तरह समन्तभद्र आदि आचार्योंकी भारती दुर्लभ है ।
तिरुमकूडलुनरसीपुरके शिलालेख नं० १०५ में भी समन्तभद्रका स्तवन इस प्रकार किया गया है
समन्तभद्रः संस्तुत्यः कस्य न स्यान्मुनीश्वरः ।
वाराणसीश्वरस्याग्रे निर्जिता येन विद्विषः ॥ अर्थात् वे समन्तभद्र मुनीश्वर किसके द्वारा संस्तुत्य नहीं हैं जिन्होंने वाराणसीके राजाके समक्ष शत्रुओं ( जिनशासनसे द्वेष रखनेवाले प्रतिवादियों )को पराजित किया था।
उपरिलिखित उल्लेखोंसे समन्तभद्रके व्यक्तित्वका ज्ञान पूर्णरूपसे हो जाता है। किन्तु यह जिज्ञासा बनी ही रहती है कि इतने प्रभावशाली मूर्धन्य आचार्यका जन्म कहाँ हुआ था, उनके माता-पिता कौन थे, उनका कुल, जाति आदि क्या थी। इन प्रश्नोंका उत्तर सरल नहीं है । इसका कारण यह है कि ख्यातिकी चाहसे निरपेक्ष प्राचीन शास्त्रकारोंने अपने किसी भी ग्रंथमें अपना कुछ भी परिचय नहीं लिखा है। फिर भी उपलब्ध अन्य किंचित् सामग्रीके आधारपर समन्तभद्रके विषयमें जो थोड़ीसी जानकारी प्राप्त हुई वह निम्न प्रकार है।
श्रवणबेलगोलके विद्वान् श्री दोर्बलि जिनदास शास्त्रीके शास्त्रभण्डारमें सुरक्षित आप्तमीमांसाकी एक प्राचीन ताडपत्रीय प्रतिके निम्नलिखित पुष्पिकावाक्य ---'इति श्री फणिमण्डलालंकारस्योरगपुराधिपसूनोः
१. श्रीवर्धमानमकलंकमनिन्द्यवन्द्यपादारविन्दुयुगलं प्रणिपत्य मूर्ना ।
भव्यकलोकनयनं परिपालयन्तं स्याद्वादवम परिणौमि समन्तभद्रम् ।। अष्टशती २. जिनराजोद्यच्छासनाम्बुधिचन्द्रमाः ।
रत्नमाला ३. गुणान्विता निर्मलवृत्तमौत्तिका नरोत्तमैः कण्ठविभूषणीकृता।
न हारयष्टि: परमेव दुर्लभा समन्तभद्रादिभवा च भारती॥ चन्द्रप्रभचरित
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.