________________
३६
समन्तभद्रकी कृतियाँ
१. आप्तमीमांसा, ४. स्तुतिविद्या,
२. युक्त्यनुशासन, ३. स्वयम्भूस्तोत्र, और ५ रत्नकरण्ड श्रावकाचार
ये पाँच ग्रन्थ उपलब्ध हैं और प्रकाशित हो चुके हैं । इन उपलब्ध ग्रन्थोंके अतिरिक्त इनके द्वारा रचित निम्नलिखित ग्रन्थोंके उल्लेख और मिलते हैं
१ जीवसिद्धि, २ गन्धहस्तिमहाभाष्य,
आप्तमीमांसा-तत्त्वदीपिका
इनमें से जिनसेनाचार्यंने हरिवंशपुराण में जीवसिद्धिका उल्लेख किया है' । चौदहवीं शताब्दीके विद्वान् हस्तिमल्लने अपने विक्रान्तकौरवकी प्रशस्ति में गन्धहस्तिमहाभाष्यका निर्देश किया है ।
यह पहले बतलाया जा चुका है कि समन्तभद्र परीक्षाप्रधान आचार्यं थे । साथ ही श्रद्धा और गुणज्ञता नामक गुण भी उनमें विद्यमान थे । उन्हें आद्य स्तुतिकार होनेका गौरव प्रात है । उनके उपलब्ध ग्रन्थों में रत्नकरण्डश्रावकाचारको छोड़कर शेष चारों ग्रन्थ स्तुतिपरक ग्रन्थ हैं। इन ग्रन्थोंमें अपने इष्टदेवकी स्तुतिके व्याज ( बहाना ) से उन्होंने एकान्तवादोंकी आलोचना करके अनेकान्तवाद की स्थापना की है । वे 'स्वामी' पदसे अभिभूषित थे । स्वामी उनका उपनाम हो गया था । इसी कारण विद्यानन्द और वादिराजसूरि जैसे कितने ही आचार्यों तथा पं० आशाधरजी जैसे विद्वानोंने अपने ग्रन्थोंमें अनेक स्थानोंपर केवल स्वामी पदके प्रयोग द्वारा ही उनका नामोल्लेख किया है । उन्होंने अपने जन्मसे इस भारत भूमिको पवित्र किया था । इसीलिए शुभचन्द्राचार्यने पाण्डवपुराणमें उनके लिए जो 'भारतभूषण' विशेषणका प्रयोग किया है वह सर्वथा उचित है ।
जैनदर्शनके इतिहास में आचार्य समन्तभद्रका स्थान
अनेकान्त और स्याद्वाद जैनदर्शनके प्राण हैं । और आचार्य समन्तभद्र स्याद्वादविद्या प्राणप्रतिष्ठापक हैं । यह कहा जा सकता है कि आचार्य समन्तभद्रके पहले जिन तत्त्वोंकी प्रतिष्ठा आगमके आधार १. जीवसिद्धिविधायीह कृतयुक्त्यनुशासनम् । २. तत्त्वार्थसूत्रव्याख्यानगन्धहस्तिप्रवर्तकः । स्वामी समन्तभद्रोऽभूद् देवागमनिदेशकः ॥ ३. समन्तभद्रो भद्रार्थो भातु भारतभूषण:
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.