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________________ कारिका-१०१] तत्त्वदीपिका ३१७ और जिसको प्रदीपप्रभामें मणिका ज्ञान हुआ उसको मणिकी प्राप्ति नहीं होती है। इसी प्रकार अनुमान और अनुमानाभास दोनोंके अयथार्थ होने पर भी एक अर्थक्रियाका साधक होता है, और दूसरा उसका साधक नहीं होता है। अनुमानसे परम्परया स्वलक्षणकी प्राप्ति हो जाती है, और अनुमानाभाससे नहीं होती है। अतः अनुमान प्रमाण है और अनुमानाभास अप्रमाण है। यहाँ बौद्धोंने जो मणिप्रभाका दष्टान्त दिया है, वह उन्हींके मतका विघटन करनेवाला है। मणिप्रभादर्शनको स्वयं बौद्धोंने संवादक माना है, और संवादक होनेसे वह प्रमाण भी है। किन्तु मणिप्रभादर्शन नामक प्रमाणको प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणसे अतिरिक्त तृतीय प्रमाण मानना पड़ेगा। मणिप्रभादर्शनका प्रत्यक्षमें अन्तर्भाव नहीं हो सकता है, क्योंकि वह अपने विषयका विसंवादक है, जैसे कि शक्तिकामें रजतका ज्ञान अपने विषयका विसंवादक है। यदि ऐसा कहा जाय कि जिस पुरुषको व्यभिचार ( मणिप्रभा और मणिमें पृथकत्व) का ज्ञान नहीं हुआ है, वह समझता है कि मैंने जिसको देखा था उसको प्राप्त किया है, अतः मणिप्रभा और मणिमें एकत्वका अध्यवसाय करके मणिप्रभादर्शनको भी प्रत्यक्ष मान लेने में कोई बाधा नहीं है। यदि ऐसा है तो शुक्तिकामें रजतका ज्ञान, अवस्थित वृक्षोंमें गतिशीलताका ज्ञान आदि भ्रान्त ज्ञानोंको भी प्रमाण मानना चाहिए। और तब 'अभ्रान्तं प्रत्यक्षम्' ऐसा कहना व्यर्थ है। यदि विसंवाद पाये जानेके कारण भ्रान्त ज्ञान प्रमाण नहीं है, तो मणिप्रभामें जो मणिदर्शन होता है, उसमें भी विसंवाद पाया जाता है । अत: वह प्रमाण कैसे होगा। कुंचिकाविवर (कुंजीका छिद्र)में मणिदर्शन होता है और कक्षके अन्दर मणिकी प्राप्ति होती है। अतः भ्रान्त होनेके कारण मणिप्रभादर्शनको प्रत्यक्ष नहीं माना जा सकता है । वह अनुमान भी नहीं है। क्योंकि उसमें लिङ्ग और लिङ्गीके सम्बन्धका ज्ञान नहीं है। तथा साध्य और साधनके ज्ञानके अभावमें अनुमान कैसे हो सकता है। मणिप्रभादर्शन दृष्टान्त है, दान्ति नहीं। फिर भी मणिप्रभादर्शनको अनुमान माना जाय तो दृष्टान्त और दान्तिके एक हो जानेसे किसके द्वारा किसकी सिद्धि होगी। और तब क्षणिकत्वादि साधक अनुमान भी कैसे बनेगा। कदाचित् संवाद पाये जानेके कारण मणिप्रभादर्शनको प्रमाण मानना ठीक नहीं है। क्योंकि कदाचित् संवाद तो मिथ्याज्ञानमें भी पाया जाता है। कभी कभी मिथ्याज्ञानसे भी अर्थकी प्राप्ति हो जाती है। अतः उसे भी प्रमाण मानना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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