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________________ ३१६ आप्तमीमांसा [परिच्छेद-१० सर्वथा प्रमाण हो, तो उसको ग्राह्यग्राहकाकाररूपसे भी प्रमाण मानना चाहिए। बौद्धों द्वारा बहिरंग तत्त्व रूपादि स्वलक्षणोंका भी जैसा वर्णन किया गया है वैसी उनकी उपलब्धि नहीं होती है । रूपादि परमाणुओंको अस्थूल, क्षणिक, निरंश आदि रूपसे बतलाया गया है। किन्तु बहिरङ्ग तत्त्वका जो ज्ञान होता है उसमें स्थिर, स्थूल, सांश आदि स्वरूप तत्त्वकी ही प्रतीति होती है। अतः बहिरङ्ग तत्त्वका जो ज्ञान है उसको रूपादिमात्रके जानने में प्रमाण होने पर भी स्थिरता, स्थूलता आदिके जाननेकी अपेक्षासे वह अप्रमाण है । यदि बहिरङ्ग तत्त्वका ज्ञान सर्वथा प्रमाण हो, तो उसको स्थिरता आदिके जाननेकी अपेक्षासे भी प्रमाण मानना चाहिए। बौद्ध मानते हैं कि पदार्थ निरंश है, इसलिए पदार्थका प्रत्यक्ष होने पर उसमें ऐसा कोई धर्म नहीं रहता है जिसका प्रत्यक्ष न हो । कहा भी है तस्मात् दृष्टस्य भावस्य दृष्ट एवाखिलो गुणः । भ्रान्तेनिश्चीयते नेति साधनं सम्प्रवर्तते ।। -प्रमाणवा० ३।४५ पदार्थका प्रत्यक्ष होने पर उसके क्षणिकत्व आदि समस्त धर्मोंका भी प्रत्यक्ष हो जाता है। किन्तु सदृश अपर-अपर क्षणोंकी उत्पत्ति होनेसे भ्रान्तिके कारण लोग पदार्थको अक्षणिक समझ लेते हैं। यही कारण है कि वस्तुमें क्षणिकत्वका ज्ञान करानेके लिए 'सर्वं क्षणिक सत्त्वात्' 'सब क्षणिक हैं, सत् होनेसे' इस प्रकारके अनुमानकी प्रवृत्ति होती है। बौद्धोंका उक्त कथन समीचीन नहीं है। क्योंकि उनके यहाँ तत्त्व प्रतिपत्तिका कोई भी उपाय नहीं है । निर्विकल्पक होनेसे प्रत्यक्षके द्वारा अर्थकी प्रतिपत्ति नहीं हो सकती है। और अनुमान संवृतिसत् सामान्यको विषय करनेके कारण तत्त्वकी प्रतिपत्ति करने में असमर्थ है। बौद्ध कहते हैं कि यद्यपि अनुमान संवृतिसत् सामान्यको विषय करता है, फिर भी स्वलक्षणकी प्राप्तिमें कारण होनेसे उसको प्रमाण माना गया है। उसके द्वारा तत्त्वकी प्रतिपत्ति होनेमें कोई बाधा नहीं है । इसी बातको एक उदाहरण द्वारा समझाया गया है। किसी पुरुषको मणिप्रभामें मणिका ज्ञान हुआ और किसी पुरुषको प्रदीपप्रभामें मणिका ज्ञान हुआ, उन दोनोंका ज्ञान समानरूपसे मिथ्या है। फिर भी जिसको मणिप्रभामें मणिका ज्ञान हुआ है, उसको मणिकी प्राप्ति हो जाती है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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