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________________ ३१८ आप्तमीमांसा [परिच्छेद-१० अन्यथा मणिप्रभादर्शनको तथा अनुमानको भी विसंवादी होनेसे प्रमाण मत मनिए। यहाँ बौद्ध कहते हैं कि मिथ्याज्ञानमें संवाद कभी-कभी ही पाया जाता है, किन्तु अनुमानमें संवाद सदा पाया जाता है। यद्यपि अनुमान अवस्तुभूत सामान्यको विषय करता है, फिर भी परम्परासे वस्तु ( स्वलक्षण ) की प्राप्तिका कारण होनेसे वह संवादक है। कहा भी है लिङ्गलिङ्गिधियोरेवं पारम्पर्येण वस्तुनि । प्रतिबन्धात्तदाभासशून्ययोरप्यवञ्चनम् ॥ -प्रमाणवा० २।८२ लिङ्गबुद्धि ( हेतुका ज्ञान ) और लिङ्गिबुद्धि ( साध्यका ज्ञान ) में वस्तुका साक्षात् प्रतिभास न होनेपर भी परम्परासे वस्तुके साथ सम्बन्ध होनेके कारण अनुमानमें संवादकता है । ___ बौद्धोंका उक्त कथन असंगत ही है। यदि अनुमानमें सर्वदा संवादकता विद्यमान रहती है, तो प्रत्यक्षकी तरह उसे भी अभ्रान्त मानना चहिए। किन्तु बौद्धोंने प्रत्यक्षको अभ्रान्त माना है, और अनुमानको भ्रान्त माना है। धर्मोत्तरने कहा है कि अनुमान भ्रान्त है, क्योंकि वह अपने विषय सामान्यमें, जो कि अनर्थ है, अर्थका अध्यवसाय करके प्रवृत्त होता है । इस प्रकार यदि अनुमान भ्रान्त है तो वह संवादक कैसे हो सकता है। और संवादकताके अभावमें वह प्रमाण भी नहीं हो सकता है। यथार्थमें अनुमान प्रमाण है, अप्रमाण नहीं। और उसका विषय सामान्य भी मिथ्या नहीं है। यदि अनुमानका आलम्बन (सामान्य) मिथ्या है, तो प्राप्य (स्वलक्षण) भी मिथ्या होगा। और यदि अनुमान द्वारा प्राप्य विषय वास्तविक है, तो उसके आलम्बनको भी वास्तविक मानना चाहिए। इसलिए 'तत्त्वज्ञानं प्रमाणम्' यह प्रमाणका लक्षण पूर्णरूपसे निर्दोष है। इस लक्षणमें अव्याप्ति, अतिव्यान्ति और असंभव दोषोंमेंसे कोई भी दोष संभव नहीं है। जितने प्रमाण हैं वे सब तत्त्वज्ञानरूप ही हैं । प्रमाणोंमें जो प्रतिभास भेद पाया जाता है, वह कारणसामग्रीके भेदसे होता है। इन्द्रियजन्य होनेसे प्रत्यक्ष विशद होता है, और लिङ्ग आदि १. भ्रान्तंशनुमानं स्वप्रतिभासेऽनर्थेऽर्थाध्यवसायेन प्रवृत्तत्वात् । . -न्याय बि० टीका, पृ० ९। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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