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कारिका-९९] तत्त्वदीपिका
३०५ है, तो तनु आदि कार्योंकी उत्पत्ति भी विना इच्छाके हो जाना चाहिए । और यदि इच्छा पूर्वक इच्छाकी उत्पत्ति होती है, तो इच्छाओंकी उत्पत्तिमें ही शक्ति क्षीण हो जानेसे तनु आदि कार्योंकी उत्पत्तिका कभी अवसर हो प्राप्त नहीं होगा। यदि इच्छाकी उत्पत्ति बुद्धि पूर्वक मानी जाय तो नित्य और एक स्वभाववाली बुद्धिसे अनेक इच्छाओंकी उत्पत्ति कैसे संभव होगी। इस प्रकार तनु आदिकी उत्पत्तिका कारण न तो ईश्वरकी नित्य इच्छा हो सकती है, और न अनित्य इच्छा, और न स्वयं ईश्वर ही संसारका निमित्त कारण हो सकता है। अतः कर्मके अनुसार इच्छादि कार्योंकी उत्पत्ति मानना ठीक है। अपने-अपने कर्मके अनुसार तनु आदि कार्योंकी उत्पत्ति मानन में कोई विरोध नहीं है, और सब व्यवस्था भी बन जाती है।
यहाँ यह कहा जा सकता है कि शरीर, पृथिवी आदि कार्योंकी उत्पत्ति सदा नहीं होती रहती है, किन्तु कभी-कभी होती है, उनमें विशेष रचना भी पायी जाती है । इत्यादि कारणोंसे उनका कर्ता कोई बुद्धिमान् अवश्य होना चाहिए। और जो बुद्धिमान् उनका कर्ता है, वही ईश्वर है । अत: विरम्यप्रवृत्ति, सन्निवेश विशेष, कार्यत्व, अचेतनोपादानत्व, अर्थक्रियाकारित्व आदि हेतुओंसे तनु आदिके कर्ता ईश्वरकी सिद्धि होती है।
उक्त प्रकारसे ईश्वरकी सिद्धि करना युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि प्रत्येक आत्मा धर्माधर्म (अदृष्ट) के द्वारा ही शरीर, इन्द्रिय आदि कार्योंकी उत्पत्ति करने में समर्थ है । और कभी-कभी उत्पत्ति, रचना विशेष, आदि बातें बुद्धिमान् कारणके विना भी अदष्टके द्वारा हो सकती हैं। अतः रचना विशेष आदि हेतुओंसे भी ईश्वरकी सिद्धि नहीं होती है।
यहाँ नैयायिक कह सकता है कि शरीर और इन्द्रियोंकी उत्पत्तिके पहले आत्मा अचेतन है, धर्म और अधर्म भी अचेतन हैं। अतः उनमें नाना प्रकारके भोग करने में समर्थ शरीर, इन्द्रिय आदिको उत्पन्न करनेका कौशल संभव न होनेसे शरीर आदिकी उत्पत्तिके लिए किसी बुद्धिमान् कर्ताकी आवश्यकता है। जैसे कि घटकी उत्पत्तिमें कुम्भकारकी आवश्यकता होती है। अचेतन होनेसे मृत्पिण्ड, दण्ड, चक्र आदिमें घटको उत्पन्न करनेका कौशल नहीं हो सकता है। बुद्धिमान् कुम्भकारके होनेपर ही मृत्पिण्ड आदिसे घटकी उत्पत्ति देखी जाती है । इसलिए शरीर आदिका कर्ता बुद्धिमान् ईश्वरको मानना आवश्यक है।
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