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________________ आप्तमीमांसा [ परिच्छेद - १० नैयायिकका उक्त कथन समीचीन नहीं है । क्योंकि जिन हेतुओंसे ईश्वरकी सिद्धि की गयी है, उनका ईश्वरके साथ व्यतिरेक नहीं है । ईश्वरके विना भी सन्निवेश विशेष, कार्यत्व आदि हेतुओंके संभव होनेसे व्यतिरेकका अभाव सुनिश्चित है । यह कहना भी ठोक नहीं है कि शरीर और इन्द्रिय रहित आत्मासे शरीर आदिकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है । यदि ऐसा है तो शरीर और इन्द्रिय रहित ईश्वरसे शरीर और इन्द्रियकी उत्पत्ति कैसे होगी । यदि शरीर और इन्द्रिय रहित ईश्वर प्राणियोंके शरीर और इन्द्रियकी उत्पत्तिका कारण होता है, तो अचेतन कर्मको भी शरीर आदिकी उत्पत्तिका कारण मानने में कौनसी बाधा है । दृष्टान्तका व्यतिक्रम तो दोनोंमें समानरूपसे है । नैयाकिने ईश्वरको शरीर आदिका कर्ता सिद्ध करनेके लिए कुंभकारका दृष्टान्त दिया है । किन्तु यह दृष्टान्त विषम है । कुंभकार शरीर और इन्द्रिय सहित है, परन्तु ईश्वर शरीर और इन्द्रिय रहित है । दृष्टान्तके बलसे तो ईश्वर भी शरीर और इन्द्रिय सहित ही सिद्ध होगा । फिर भी ईश्वरको शरीर और इन्द्रिय रहित माना जाय, तो जिस प्रकार शरीर और इन्द्रिय रहित ईश्वर शरीर और इन्द्रियका कर्ता होता है, उसी प्रकार अचेतन कर्म भी शरीर आदिका कर्ता हो सकता है । इसलिए ईश्वरको शरीर आदिका कर्ता मानना आवश्यक नहीं है । ३०६ इस विषय में नैयायिकका कहना है कि कर्तृत्व के प्रति सशरीरत्व या अशरीरत्व प्रयोजक नहीं है, किन्तु बुद्धि, इच्छा और प्रयत्नके द्वारा कार्यकी उत्पत्ति होती है । शरीर सहित कुंभकार भी बुद्धि आदि तीनके द्वारा ही घटका कर्ता होता है । प्रत्येक कार्यको उत्पत्ति के लिए पहले उसके कारण, उत्पन्न करने की विधि आदिके ज्ञानकी आवश्यकता है, पुनः कार्यको उत्पन्न करने की इच्छा होना चाहिए, और इच्छा होने पर तदनुकूल प्रयत्न करना चाहिए, तब कार्य की उत्पत्ति होती है । अतः शरीर रहित होने पर भी बुद्धि, इच्छा और प्रयत्न सहित ईश्वर शरीर आदिका कर्ता होता है । उक्त कथन भी तथ्यसे रहित है । क्योंकि शरीर रहित ईश्वर में बुद्धि, इच्छा और प्रयत्न संभव नहीं हैं । जिस प्रकार अन्य मुक्तात्माओं में बुद्धि आदि नहीं होते हैं, तथा संसारी आत्माओंमें शरीर से बाहर बुद्धि आदि नहीं होते हैं, उसी प्रकार ईश्वर में भी बुद्धि आदि नहीं हो सकते हैं । न्यायमतके अनुसार शरीर रहित होने पर मुक्तात्मामें बुध्दि आदिका अभाव हो जाता है । प्रत्येक आत्मा व्यापक है, किन्तु संसारी आत्माओं में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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