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________________ प्रस्तावना तत्त्वार्थसूत्रका मंगलाचरण है। मैं भी इस मतसे सहमत हूँ। निम्न उल्लेखसे भी उक्त मतका समर्थन होता है-'गृद्धपिच्छाचार्येणापि तत्त्वार्थशास्त्रस्यादौ 'मोक्षमार्गस्य नेत्तारम्' इत्यादिना अर्हन्नमस्कारस्यैव परममंगलतया प्रथममुक्तत्त्वात् ।' -गो० जी० म०प्र० टी० पृ० ४ यह उल्लेख गोमदृसार जीवकाण्डकी मन्दप्रबोधिनी टीकाके रचयिता सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य अभयचन्द्र ( १२ वीं-१३ वीं शताब्दी ) का है । उक्त उल्लेखोंसे स्पष्ट है कि तत्त्वार्थशास्त्र ( तत्त्वार्थसूत्र ) के आरम्भमें जिन 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' आदि तीन असाधारण विशेषणोंसे आप्तकी वन्दना शास्त्रकारने की है उसी आपतकी मीमांसा स्वामी समन्तभद्रने आप्तमीमांसामें की है। आप्तमीमांसाके रचयिता आचार्य समन्तभद्र समन्तभद्रका व्यक्तित्व युग प्रधान आचार्य समन्तभद्र स्याद्वादविद्याके संजीवक तथा प्राणप्रतिष्ठापक रहे हैं। उन्होंने अपने समयके समस्त दर्शनशास्त्रोंका गंभीर अध्ययन करके उनका तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया था। यही कारण है कि वे समस्त दर्शनों अथवा वादोंका युक्ति पूर्वक परीक्षण करके स्याद्वादन्यायके अनुसार उन वादोंका समन्वय करते हुए वस्तुके यथार्थ स्वरूपको बतलाने में समर्थ हुए थे। इसीलिए आचार्य विद्यानन्दने युक्त्युनुशासनटीकाके अन्तमें__ "श्रीमद्वीर-जिनेश्वरामलगुणस्तोत्रं परीक्षेक्षणः । साक्षात्स्वामिसमन्तभद्रगुरुभिस्तत्त्वं समीक्ष्यारिवलम्" ।। इस वाक्यके द्वारा उन्हें परीक्षेक्षण अर्थात् परीक्षारूपी नेत्रसे सबको देखनेवाला कहा है। यथार्थमें समन्तभद्र बहुत बड़े युक्तिवादी और परीक्षाप्रधान आचार्य थे। उन्होंने भगवान् महावीरकी युक्तिपूर्वक परीक्षा करनेके बाद ही उन्हें 'आपत' के रूपमें स्वीकार किया है। वे दसरोंको भी परीक्षाप्रधान होनेका उपदेश देते थे। उनका कहना था कि किसी भी तत्त्व या सिद्धान्तको परीक्षा किये बिना स्वीकार नहीं करना चाहिए। और समर्थ युक्तियोंसे उसकी परीक्षा करनेके बाद ही उसे स्वीकार या अस्वीकार करना चाहिए। यद्यपि आचार्य समन्तभद्र में अनेक उत्तमोत्तम गुण विद्यमान थे किन्तु उन गुणोंमें वादित्व, गमकत्व, वाग्मित्व और कवित्व ये चार गुण तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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