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________________ ३२ आप्तमीमांसा-तत्त्वदीपिका उनमें परम प्रकर्षको प्राप्त थे । उस समय जितने वादी ( शास्त्रार्थ करनेमें प्रवीण ) थे, गमक ( दूसरे विद्वानोंकी रचानाओंको स्वयं समझने और दूसरोंको समझाने में समर्थ ) थे, वाग्मी ( अपने वचनचातुर्य से दूसरोंको वशमें करनेवाले) थे और कवि ( काव्य या साहित्यकी रचना करने वाले) थे, आचार्य समन्तभद्र उन सबमें सिर पर चूड़ामणिके समान सर्वश्रेष्ठ थे । इसीलिए जिनसेनाचार्यने आदिपुराण में कहा है कवीनां गमकानां च वादीनां वाग्मिनामपि । यशः सामन्तभद्रीय मूर्ध्नि चूडामणीयते ॥ समन्तभद्र सबसे बड़े वादी थे । उनके वादका क्षेत्र संकुचित नहीं था । उन्होंने प्रायः सम्पूर्ण भारतवर्षका भ्रमण किया था और सर्वत्र ही उन्हें वादमें विजय प्राप्त हुई थी । वे कभी इस बातकी प्रतीक्षा में नहीं रहते थे कि कोई दूसरा उन्हें वाद के लिए निमंत्रण दे । इसके विपरीत उन्हें जहाँ कहीं किसी महावादी अथवा वादशालाका पता चलता था तो वे वहाँ पहुँचकर और वादका डंका बजाकर विद्वानोंको वादके लिए स्वतः आमंत्रित करते थे। वहाँ स्याद्वादन्यायकी तुलामें तुले हुए उनके युक्तिपूर्ण भाषणको सुनकर श्रोता मुग्ध हो जाते थे और किसीको भी उनका कुछ भी विरोध करते नहीं बनता था । इस प्रकार आचार्य समन्तभद्र भारतके पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तरके प्रायः सभी प्रमुख स्थानोंमें एक अप्रतिद्वन्दी सिंहके समान निर्भयताके साथ वादके लिए घूमे थे । एक बार वे घूमते हुए करहाटक नगरमें पहुँचे थे और उन्होंने वहाँके राजाके समक्ष अपना वादविषयक जो परिचय दिया था वह श्रवणबेलगोलके शिलालेख नं० ५४ में निम्न प्रकारसे उपलब्ध है पूर्वं पाटलिपुत्रमध्यनगरे मेरी मया ताडिता, पश्चान्मालवसिन्धुठक्कविषये कांचीपुरे वैदिशे | प्राप्तोऽहं करहाटकं बहुभटं विद्योत्कटं संकटम्, वादार्थी विचराम्यहं नरपते शार्दूलविक्रीडितम् || वे करहाटक पहुँचने से पहले पाटलिपुत्र (पटना) मालव, सिन्धु, ठक्क ( पंजाब ) कांचीपुर ( कांजीवरम् ) और वैदिश (विदिशा ) में पहुँच चुके थे । समन्तभद्रके देशाटनके सम्बन्ध में एम० एस० रामस्वामी आयंगर अपनी ( Studies in South Indian Jainism ) नामक पुस्तक में लिखते हैं " यह स्पष्ट है कि समन्तभद्र एक बहुत बड़े धर्म प्रचारक थे, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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