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कारिका-९६] तत्त्वदीपिका
२९७ कारण इच्छा और द्वेषकी निवृत्ति कैसे होगी। और किसीको केवलज्ञान कैसे होगा। इस प्रकार केवलीका अभाव सुनिश्चित है ।
बौद्ध मानते हैं—'अविद्यातृष्णाभ्यां बन्धोऽवश्यंभावी' । अर्थात् अविद्या और तृष्णाके द्वारा बन्ध नियमसे होता है । तथा--
दुःखे विपर्यासमतिस्तृष्णा वा बन्धकारणम् ।
जन्मिनो यस्य ते न स्तौ न स जन्माधिगच्छति ॥ दुःखमें सुख बुद्धि (विपरीत बुद्धि या अविद्या) और तृष्णा बन्धके कारण हैं । जिस प्राणीमें अविद्या और तृष्णा नहीं हैं उसको जन्म धारण नहीं करना पड़ता है।
बौद्धका उक्त मत युक्तिसंगत नहीं है। बौद्धमतमें भी सर्वज्ञके अभावका प्रसंग पहलेकी तरह बना रहता है। क्योंकि ज्ञेयोंके अनन्त होनेसे प्रत्यक्ष और अनुमानके द्वारा समस्त तत्त्वोंके ज्ञानरूप विद्याकी उत्पत्ति संभव नहीं है। विद्याकी उत्पत्तिके अभावमें अविद्याकी निवृत्ति नहीं हो सकती है । और अविद्याकी निवृत्ति न होनेसे तृष्णाकी निवृत्ति भी नहीं होगी। अत: सदा अविद्या और तृष्णाके सद्भावमें बन्ध होता ही रहेगा और मोक्ष कभी नहीं होगा। यहाँ बौद्ध कह सकता है कि मोक्ष प्राप्तिके लिए समस्त तत्त्वोंके ज्ञानकी आवश्यकता नहीं है, किन्तु अल्प ज्ञानसे ही मुक्ति हो जाती है । कहा भी है
हेयोपादेयतत्त्वस्य साभ्युपायस्य वेदकः। . यः प्रमाणमसाविष्टो न तु सर्वस्य वेदकः ॥
उपाय सहित हेय और उपादेय तत्त्वोंका जो ज्ञाता है वही प्रमाणरूपसे इष्ट है, ऐसा नहीं है कि सबको जानने वाला ही प्रमाण (आप्त) हो। बौद्धोंका उक्त कथन युक्त नहीं है । क्योंकि अल्प ज्ञानसे मोक्ष मानने पर भी बहुत अज्ञानसे बन्धकी सिद्धि अवश्यंभावी है। यदि अल्प ज्ञानके होने पर बहुत मिथ्याज्ञानसे बन्ध न हो, तो 'अविद्या और तृष्णासे बन्ध अवश्य होता है', इस कथनकी सत्यता कैसे रहेगी। इसलिए अविद्या
और तृष्णाके द्वारा बन्ध माननेका सिद्धान्त ठीक नहीं है। __वृद्ध बौद्धोंने कहा है-'अविद्याप्रत्ययाः संस्काराः, संस्कारप्रत्ययं विज्ञानं, विज्ञानप्रत्ययं नामरूपं, नामरूपप्रत्ययं षडायतन, षडायतनप्रत्ययः स्पर्शः, स्पर्शप्रत्यया वेदना, वेदनाप्रत्यया तृष्णा, तृष्णाप्रत्ययमुपादानं,
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