________________
२९८
आप्तमीमांसा [परिच्छेद-१० उपादानप्रत्ययो भवः, भवप्रत्यया जातिः, जातिप्रत्ययं जरामरणम्' अर्थात् अविद्यासे संस्कार, संस्कारसे विज्ञान, विज्ञानसे नामरूप, नामरूपसे, षडायतन, षडायतनसे स्पर्श, स्पर्शसे वेदना, वेदनासे तृष्णा, तष्णासे उपादान, उपादानसे भव, भवसे जाति, और जातिसे जरामरण उत्पत्र होता है । यह द्वादशांग प्रतीत्यसमुत्पाद है ।
इस मतके अनुसार संसारका मूल कारण अविद्या है। और विद्यासे अविद्याकी निवृत्ति हो जाने पर क्रमशः संस्कार आदिकी भी निवृत्ति हो जाती है। और तब मोक्षकी प्राप्ति होती है। अतः अविद्या बन्धका कारण और विद्या मोक्षका कारण है।
यह मत भी समीचीन नहीं है । क्षणिक, निरात्मक, अशुचि और दुःखरूप पदार्थों में अक्षणिक, सात्मक, शुचि और सूखरूपकी कल्पना करना अविद्या है। इस अविद्याके होने पर किसी ज्ञेयमें अविद्याजन्य संस्कार उत्पन्न होंगे ही। और इस क्रमसे अविद्यासे लेकर जरामरणपर्यन्त कार्यकारणकी परम्परा बराबर बनी रहेगी। ऐसी स्थितिमें सुगतका केवली होना असंभव ही है। समस्त तत्त्वोंके यथार्थ ज्ञानसे ही अविद्याकी निवृत्ति हो सकती है। किन्तु समस्त तत्त्वोंका यथार्थ ज्ञान संभव न होने अविद्याकी निवृत्ति नहीं होगी। और अविद्याकी निवृत्तिके अभावमें संस्कार आदिकी निवृत्ति भी नहीं होगी। इस प्रकार अविद्या आदिके सद्भावमें सदा बन्ध होता रहेगा और कभी भी मोक्षकी प्राप्ति नहीं होगी। अतः अविद्यासे बन्ध और विद्यासे मोक्ष मानना ठीक नहीं है ।
इसलिए यह ठीक ही कहा है कि यदि अज्ञानसे बन्ध होता है, तो कोई भी मुक्त नहीं हो सकता है। क्योंकि ज्ञेयोंके अनन्त होनेसे किसी न किसी ज्ञेयमें सबको अज्ञान बना ही रहेगा, और अज्ञानसे बन्ध भी होता ही रहेगा। - उपयुक्त कारिकाके-'अज्ञानाद बहुतोऽन्यथा'। ___इस वाक्यका अर्थ आचार्य विद्यानन्दने यही किया है कि बहुत अज्ञानसे बन्धकी प्राप्ति होगी। किन्तु अकलङ्कदेवने उक्त वाक्यका अर्थ भिन्न प्रकारसे भी किया है। उन्होंने कहा है-'यदि पुननिनिह्रासाद् ब्रह्मप्राप्तिरज्ञानात् सुतरां प्रसज्येत, दुःखनिवृत्तेरिव सुखप्राप्तिः ।' यदि ज्ञानके ह्रास (अल्पज्ञान) से मोक्षकी प्राप्ति होती है, तो यह बात स्वतः सिद्ध है कि बहुत अज्ञानसे मोक्ष प्राप्त होता है। जैसे कि अल्प दुःखकी निवृत्ति होने पर सुखकी प्राप्ति होती है, तो बहुत दुःखकी निवृत्ति
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org,