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________________ २९६ आप्तमीमांसा [परिच्छेद-१० कि निर्दोष मिथ्याज्ञानसे बन्ध नहीं होता है। यही प्रतिज्ञाविरोध है । वैराग्य सहित तत्त्वज्ञानसे मोक्ष मानने में भी प्रतिज्ञाविरोध है। क्योंकि ऐसा माननेपर 'अल्प ज्ञानसे मोक्ष होता है', इस कथनमें विरोध आता है। अतः मिथ्याज्ञानसे बन्ध होता है, और अल्पज्ञानसे मोक्ष होता है, ऐसा पक्ष सर्वथा असंगत है । नैयायिक मानते हैंदुःखजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तराभावादपवर्गः। ( न्या०सू० १।१।२) दुःख, जन्म, प्रवृत्ति, दोष, और मिथ्याज्ञान इनमेंसे उत्तर-उत्तरके विनाशसे पूर्व-पूर्वका विनाश होता है। अर्थात् मिथ्याज्ञानके विनाशसे दोषका विनाश, दोषके विनाशसे प्रवृत्तिका विनाश, प्रवृत्तिके विनाशसे जन्मका विनाश और जन्मके विनाशसे दुःखका विनाश होनेपर मोक्ष होता है। इस मतमें भी कोई केवली नहीं हो सकता है। क्योंकि प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे सम्पूर्ण तत्त्वोंका ज्ञान संभव न होनेसे मिथ्याज्ञानकी निवृत्ति संभव नहीं है । और मिथ्याज्ञानकी निवृत्तिके अभावमें दोष आदिकी निवृत्ति भी नहीं हो सकेगी। ऐसी स्थितिमें केवलज्ञानकी उत्पत्ति और मोक्षकी प्रप्ति नितान्त असंभव है। यदि ऐसा माना जाय कि मोक्ष प्राप्तिके लिए समस्त पदार्थोके ज्ञानको आवश्यकता नहीं है, अल्पज्ञानसे अर्थात् आत्मा, शरीर, इन्द्रिय आदि बारह प्रकारके प्रमेयका ज्ञान होनेसे ही मोक्ष हो जाता है, तो ऐसा मानना ठीक नहीं है। क्योंकि अल्प ज्ञान होनेपर भी बहत मिथ्याज्ञानके सद्भावमें बन्ध अवश्यंभावी है। इस प्रकार न्यायमतमें मिथ्याज्ञानसे बन्ध और तत्त्वज्ञानसे मोक्ष सिद्ध नहों होता है। वैशेषिकका मत है—'इच्छाद्वेषाभ्यां बन्धः' । अर्थात् इच्छा और द्वेषके द्वारा बन्ध होता है । इस मतमें भी केवलोके अभावका प्रसंग आता है। क्योंकि तत्त्वज्ञानके द्वारा मिथ्याज्ञानको निवृत्ति होनेपर इच्छा और द्वेषकी निवृत्ति संभव है। किन्तु किसी भी प्रमाणसे समस्त तत्त्वोंका ज्ञान संभव नहीं है। अतः योगिज्ञानके पहले इच्छा और द्वेषके कारणभून मिथ्याज्ञानका सद्भाव सदा बने रहने के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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