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________________ कारिका-९६] तत्त्वदीपिका २९५ यहाँ सांख्य कह सकता है कि ज्ञानके प्रागभावसे बन्ध होता है, प्रध्वंसाभावसे नहीं, और मुक्तिमें ज्ञानका प्रध्वंसाभाव है, अतः वहाँ बन्धकी प्राप्तिका प्रसंग नहीं होगा । किन्तु सांख्यका उक्त कथन उचित नहीं है । क्योंकि ऐसा मानने पर उस व्यक्ति को बन्ध नहीं होना चाहिए, जिसके तत्त्वज्ञानका प्रध्वंस विपर्यय ज्ञानसे हो गया है। क्योंकि उस व्यक्तिमें ज्ञानका प्रध्वंसाभाव है, जैसे कि मुक्त आत्मामें ज्ञानका प्रध्वंसाभाव है । इसलिए ज्ञानाभावरूप अज्ञानसे बन्ध मानना और अल्पज्ञानसे मोक्ष मानना ये दोनों पक्ष ठीक नहीं हैं। ___ दूसरा पक्ष यह है कि मिथ्याज्ञानरूप अज्ञानसे बन्ध होता है। कहा भी है धर्मेण गमनमूवं गमनमधस्ताद्भवत्यधर्मेण । ज्ञानेन चापवर्गो विपर्ययादिष्यते बन्धः॥ -सांख्यका० ४४ धर्मसे जीवका ऊर्ध्व गमन होता है, और अधर्मसे अधोगमन होता है । ज्ञानसे मोक्ष होता है, और विपर्यय (मिथ्याज्ञान) से बन्ध होता है। मिथ्याज्ञानके सहज (नैसर्गिक) आहार्य (किसी निमित्तसे उद्भूत) आदि अनेक भेद हैं। मिथ्याज्ञानसे बन्ध होता है, ऐसा पक्ष स्वीकार करने में भी केवलीके अभावका प्रसंग आता है। क्योंकि सांख्य-आगमके बलसे उत्पन्न तत्त्वज्ञानके द्वारा आहार्य मिथ्याज्ञानका नाश होनेपर भी सहज मिथ्याज्ञान बना ही रहेगा। और मिथ्याज्ञानके सद्भावमें बन्ध भी अवश्य होता रहेगा। ऐसी स्थितिमें केवलज्ञानकी उत्पत्ति असंभव है। आगम आदि अन्य किसी प्रमाणसे भी समस्त तत्त्वोंका ज्ञान संभव नहीं है, जिससे कि सम्पूर्ण मिथ्याज्ञानकी निवृत्ति होनेपर केवलज्ञानकी उत्पत्ति संभव हो। अल्प ज्ञानसे मुक्ति मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि बहुत मिथ्याज्ञानके सद्भावमें बन्ध होता ही रहेगा। अल्पज्ञानसे बहुत मिथ्याज्ञानका प्रतिबन्ध नहीं हो सकता है, अन्यथा 'मिथ्याज्ञानसे नियमसे बन्ध होता है', इस कथनमें विरोध आता है। ऐसा कहना भी ठीक नहीं है कि अन्तिम मिथ्याज्ञानसे बन्ध नहीं होता है, क्योंकि ऐसा कहने में पूर्ववत् प्रतिज्ञाविरोध है। ऐसा मानना भी ठीक नहीं है कि रागादि दोष सहित मिथ्याज्ञानसे बन्ध होता है, और निर्दोष मिथ्याज्ञानसे बन्ध नहीं होता है, क्योंकि ऐसा माननेपर भी प्रतिज्ञाविरोध बना ही रहता है । पहले कहा था कि मिथ्याज्ञानसे बन्ध होता है, और अब यह मान लिया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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