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आप्तमीमांसा [परिच्छेद-१० प्रमाणसे सम्भव न हो सकने के कारण उनके विषयमें सदा अज्ञान बना रहेगा, और कोई भी केवली नहीं हो सकेगा। __ सांख्य कहता है कि तत्त्वोंके अभ्यासस्वरूप और आगमके बलसे होने वाले प्रकृति और पुरुषके अल्प भेदविज्ञानसे युक्त पुरुष को केवली कहने में कोई हानि नहीं है । अर्थात् केवली बननेके लिए समस्त ज्ञेयोंके ज्ञानकी आवश्यकता नहीं है, केवल प्रकृति और पुरुषके भेदविज्ञानसे पुरुष केवली हो जाता है। और इसी भेदविज्ञानका नाम मोक्ष है। क्योंकि उक्त प्रकारका भेदविज्ञान होने पर आगामी बन्धका निरोध हो जानेसे संसारका अभाव हो जाता है। . सांख्य का उक्त कथन ठीक नहीं है। क्योंकि प्रकृति और पुरुषमें जो भेदविज्ञान होता है वह अल्प है, तथा अनन्त पदार्थोंका जो अज्ञान है वह बहुत है। इसलिए प्रकृति और पुरुषमें भेदविज्ञान होने पर भी बहुत अज्ञानके कारण बन्ध का अभाव नहीं हो सकेगा। और बन्धका अभाव न होनेसे मोक्षका होना असंभव है। यदि ऐसा कहा जाय कि अल्प तत्त्वज्ञान द्वारा बहुत अज्ञान की शक्तिका प्रतिबन्ध हो जानेके कारण अज्ञानके निमित्तसे बन्ध नहीं होगा, तो ऐसा कहने में स्ववचन विरोधका प्रसंग आता है। पहले कहा था कि अज्ञानसे बन्ध होता। उक्त कथन का इस कथनसे विरोध है कि अज्ञान रहने पर भी बन्ध नहीं होता है ।
ऐसा मानना भी ठीक नहीं है कि सम्पूर्ण पदार्थोंका ज्ञान न होनेसे जो अज्ञान है उससे बन्ध होता है, किन्तु अल्पज्ञान सहित अज्ञानसे बन्ध नहीं होता है । क्योंकि ऐसा माननेसे बन्धका अभाव हो जायगा । ऐसा कोई भी प्राणी या पुरुष नहीं है जिसमें थोड़ा ज्ञान न हो। अतः सब प्राणियोंमें अल्पज्ञान होनेसे बन्धका अभाव मानना पड़ेगा। दूसरी बात यह है कि मुक्तिमें भी बन्धकी प्राप्ति होगी। क्योंकि मुक्तिमें सकल पदार्थोंके ज्ञानका अभाव रहता है। और सकल पदार्थोंके ज्ञानके अभावको बन्धका कारण माना है। यह भी माना है कि असंप्रज्ञात योग अवस्थामें दृष्टा अपने स्वरूपमें अवस्थित हो जाता है । उस समय पुरुष को सकल पदार्थोंका ज्ञान नहीं रहता है, और वह केवल चैतन्यमात्रमें स्थित रहता है। जब जीवन्मुक्तिमें ही ज्ञानका अभाव हो जाता है, तो परम मुक्तिमें तो ज्ञानका अभाव होना स्वाभाविक ही है । इसलिए मुक्तिमें अज्ञानका सद्भाव होनेसे बन्धकी प्राप्ति नियमसे होगी।
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