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नवम परिच्छेद
परको दुःख देनेसे पापका बन्ध होता है, और सुख देनेसे पुण्यका बन्ध होता है। इस प्रकारके एकान्तका निराकरण करनेके लिए आचार्य कहते हैं
पापं ध्रुवं परे दुःखात् पुण्यं च सुखतो यदि ।
अचेतनाकषायौ च बध्येयातां निमित्ततः ॥९२॥ यदि परको दुःख देनेसे पापका बन्ध निश्तिरूपसे होता है, और सुख देनेसे पुण्यका बन्ध होता है, तो परके सुख और दुःखमें निमित्त होनेसे अचेतन पदार्थ और कषाय रहित जीवको भी कर्मबन्ध होना चाहिए।
यहाँ इस बातका विचार किया गया है कि दैवका उपार्जन या बन्ध कैसे होता है । दैव दो प्रकारका है—एक पुण्य और दूसरा पाप । पुण्य प्राणियोंको इष्ट वस्तुकी प्राप्ति कराता है, और पाप अनिष्ट वस्तुकी प्राप्ति कराता है। यदि परके दुःखका कारणभूत पुरुष पापका बन्ध करता है, और परके सुखका कारणभूत पुरुष पुण्यका बन्ध करता है, तो इस प्रकार पुण्य-पाप-बन्धैकान्त माननेपर अचेतन पदार्थमें भी बन्धकी प्राप्ति होगी। क्योंकि अचेतन दुग्ध, मिष्टान्न आदि किसी पुरुषमें सुखके कारण होते हैं, तथा तृण, कण्टक, विष आदि किसी पुरुषमें दुःखके कारण होते हैं । ऐसी स्थितिमें दुग्ध आदिको पुण्यबन्ध और तृण आदिको पापबन्ध होना चाहिए। यदि यह कहा जाय कि बन्ध अचेतनमें नहीं होता है, किन्तु चेतनमें ही होता है, तो वीतराग साधुमें भी बन्धकी प्राप्ति होगी। क्योंकि वीतराग आचार्य अपने शिष्योंके सुख और दुःखका कारण होता है। वह उपदेश, शिक्षा आदिके द्वारा उनके सुखका कारण होता है, और दीक्षा, दण्ड आदिके द्वारा दुःखका कारण होता है। इसलिए वीतराग आचार्यको भी पुण्य और पापका बन्ध होना चाहिए। किन्तु न तो अचेतन पदार्थ बन्ध करता है और न वीतराग ही बन्ध करता है। इस प्रकार परके दुःखका हेतु होनेसे पाप बन्ध और सुखका हेतु होनेसे पुण्य बन्ध होता है, ऐसा एकान्त मानना ठीक नहीं है।
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