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________________ कारिका-९३-९४] तत्त्वदीपिका २८९ __ अपनेको दुःख देनेसे पुण्य-बन्ध होता है, और अपनेको सुख देनेसे पाप-बन्ध होता है। इस प्रकारके एकान्तका निराकरण करनेके लिए आचार्य कहते हैं___ पुण्यं ध्रुवं स्वतो दुःखात् पापं च सुखतो यदि । वीतरागो मुनिर्विद्वांस्ताभ्यां युज्यानिमित्ततः ॥९३॥ यदि अपनेको दुःख देनेसे पुण्यका बन्ध निश्चितरूपसे होता है, और सुख देनेसे पापका बन्ध होता है, तो वीतराग और विद्वान् मुनिको भी कर्म बन्ध होना चाहिए, क्योंकि वे भी अपने सुख और दुःखमें निमित्त होते हैं। ____एक वीतराग मुनि कायक्लेश आदि नाना प्रकारके कष्टोंको समतापूर्वक सहन करता है। वह उन कष्टोंके द्वारा अपने दुःखका कारण होता है। साथ ही ज्ञानवान् होनेसे वह तत्त्वज्ञानजन्य संतोषरूप सुखका कारण भी होता है। यदि ऐसा एकान्त माना जाय कि अपनेको दुःख देनेसे पुण्यका बन्ध और सुख देनेसे पापका बन्ध होता है, तो वीतराग मुनिको भी पुण्य और पापका बन्ध प्राप्त होगा। क्योंकि वह भी अपनेको दुःख और सुखका कारण होता है। और वीतरागको भी पुण्य-पापका बन्ध होने पर किसीको कभी भी मुक्तिकी प्राप्ति नहीं हो सकेगी। क्योंकि पुण्य-पापके बन्धका कभी अभाव न होनेसे संसारका कभी नाश ही नहीं होगा, और संसारका नाश हुए विना मुक्ति संभव नहीं है। और यदि पुण्य-पापके बन्धके रहते भी मुक्ति हो जाय तो फिर संसारका अभाव हो जायगा । इस प्रकार अपनेको पुण्य और पापके बन्ध होनेका एकान्त भी दृष्ट और इष्ट विरुद्ध होनेसे सर्वथा त्याज्य है । __उभयैकान्त तथा अवाच्यतैकान्तका निराकरण करनेके लिए आचार्य कहते हैं विरोधान्नोमयकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम् । अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते ॥९४॥ स्याद्वादन्यायसे द्वेष रखने वालोंके यहाँ विरोध आनेके कारण उभयैकान्त नहीं बन सकता है। और अवाच्यतैकान्तमें भी 'अवाच्य' शब्दका प्रयोग नहीं किया जा सकता है। पुण्य और पापके विषयमें एक एकान्त तो यह है कि परको दुःख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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