SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 404
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कारिका-९१] तत्त्वदीपिका २८७ षार्थका अर्थ क्या है ? 'योग्यता कर्म पूर्व वा दैवमुभयमदृष्ट, पौरुषं पुनरिहचेष्टितं दृष्टम् ।' योग्यता अथवा पूर्व कर्मका नाम दैव है। अर्थात् दैव शब्दके द्वारा योग्यता और पूर्व कर्मका ग्रहण किया गया है। ये दोनों बातें अदृष्ट हैं, देखने में नहीं आती हैं। इसीलिए दैवके लिए अदृष्ट शब्दका भी प्रयोग होता है। यह भी कहा जा सकता है कि अदृष्टका सम्बन्ध इस लोकसे न होकर परलोकसे है, अर्थात् अदष्ट परलोकसे जीवके साथ आता है, और परलोकमें साथमें जाता है। किन्तु पुरुषार्थ इससे विपरीत होता है । इस लोकमें की गयी चेष्टाका नाम पुरुषार्थ है। इस लोकमें पुरुष जो प्रयत्न करता है, वह पुरुषार्थ कहलाता है । इसलिए पौरुषको दष्ट कहा गया है। दैव और पुरुषार्थ इन दोनोंके द्वारा ही अर्थकी सिद्धि होती है । पहिले कार्यकी सिद्धि के लिए योग्यताका होना आवश्यक है। योग्यताके होनेपर जो पुरुषार्थ करता है, उसको फलकी प्राप्ति नियमसे होती है। समानरूपसे परिश्रम करनेपर भी जो विद्यार्थी अनुत्तीर्ण हो जाता है, उसका कारण यह है कि उसमें उत्तीर्ण होनेकी योग्यता नहीं थी। योग्यताके अभावमें सैकड़ों प्रयत्न करनेपर भी फलकी प्राप्ति नहीं हो सकती है। इसी प्रकार किसीमें योग्यताके होनेपर भी यदि वह हाथपर हाथ रखे बैठा रहे, और कुछ भी प्रयत्न न करे, तो उसको कभी भी अभीष्ट अर्थकी प्राप्ति नहीं हो सकती है। भोजनसामग्रीयुक्त थालके सामने रक्खे रहनेपर भी हाथके व्यापारके विना ग्रास मुखमें नहीं जा सकता है। इसलिए किसी भी अर्थकी सिद्धि न तो सर्वथा दैवसे होती है, और न सर्वथा पुरुषार्थसे होती है, किन्तु परस्पर सापेक्ष दैव और पुरुषार्थ दोनोंसे अर्थकी सिद्धि होती है। दैवकी प्रधानरूपसे अपेक्षा होनेपर पदार्थकी सिद्धि कथंचित् दैवसे होती, पुरुषार्थकी प्रधानरूपसे अपेक्षा होनेपर पदार्थकी सिद्धि कथंचित् पुरुषार्थसे होती है, क्रमसे दोनोंकी अपेक्षा होनेपर दोनोंसे अर्थकी सिद्धि होती है। और युगपत् दोनोंकी अपेक्षा करनेपर अर्थको सिद्धिके विषयमें मौनावलम्बन करना पड़ता है, इसलिए अर्थकी सिद्धि कथंचित् अवाच्य है । इत्यादि प्रकारसे दैव और पुरुषार्थसे अर्थकी सिद्धिके विषयमें पहलेकी तरह सप्तभंगीको प्रक्रियाको लगा लेना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy