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________________ २७४ आप्तमीमांसा [परिच्छेद-७ दुःख, बुद्धि आदि स्वरूप बाह्य अर्थ अवश्य मानना चाहिए । वास्तविक बाह्य अर्थके विना जीव शब्दका व्यवहार नहीं हो सकता है। कुछ लोग मानते हैं कि शरीर, इन्द्रिय आदिको छोड़कर जीव शब्दका अन्य कोई बाह्य अर्थ नहीं है। जीव शब्दको सार्थकता शरीर, इन्द्रिय आदिमें ही है। उनका ऐसा कथन नितान्त अयुक्त है । जीव शब्दके अर्थको समझनेके लिए लोकरूढ़ि क्या है इस बातको जानना आवश्यक है । लोकरूढ़िके अनुसार जीव गमन करता है, ठहरता है, इत्यादि रूपसे जिसमें व्यवहार होता है वही जीव है। अचेतन होनेसे शरीरमें उक्त व्यवहार नहीं हो सकता है । भोगके अधिष्ठान (आश्रय)में जीव शब्द रूढ़ है । अचेतन शरीर भोगका अधिष्ठान नहीं हो सकता है । इन्द्रियोंमें भी जीव शब्दका व्यवहार नहीं होता है। क्योंकि इन्द्रियाँ भोगकी अधिष्ठान नहीं हैं, किन्तु साधन हैं । शब्द आदि विषयमें भो जीव व्यवहार नहीं होता है, क्योंकि विषय भोग्य है, भोक्ता नहीं। इसलिए भोक्तामें ही जीव शब्द रूढ़ है। ____ चार्वाक जीवको पृथिवी आदि भूतोंका कार्य मानते हैं। उनका ऐसा मानना सर्वथा असंगत है। पृथिवी आदिके अचेतन होनेसे उनका कार्य जीव भी अचेतन होगा। जैसा कारण होता है कार्य भी वैसा ही होता है। यदि जीव पृथिवी आदिका कार्य है, तो पृथिवी आदिसे जीवमें अत्यन्त विलक्षणता नहीं हो सकती है। चैतन्य केवल गर्भसे लेकर मरण पर्यन्त ही नहीं रहता है, किन्तु गर्भसे पहले और मरणके बाद भी रहता है। जीव सादि और सान्त नहीं है, किन्तु अनादि और अनन्त है। इस प्रकारके चैतन्य सहित शरीरमें जीवका व्यवहार चैतन्य और शरीर में अभेदका उपचार करके किया जाता है। संसार अवस्थामें जीवको शरीरसे पृथक् नहीं किया जा सकता है। अतः लोग अज्ञानवश शरीरको ही जीव मान लेते हैं। इस प्रकार जीव शब्दका अर्थ शरीर आदि नहीं है, किन्तु उपयोग जिसका लक्षण है, एवं जो कर्ता तथा भोक्ता है वही जीव है । जीव शब्दका अर्थ काल्पनिक नहीं है, किन्तु वास्तविक है। जीव शब्द संज्ञा शब्द है। इसलिये जीव शब्दका वास्तविक अर्थ मानना आवश्यक है। बौद्ध मानते हैं कि संज्ञा केवल वक्ताके अभिप्रायको सूचित करती है। अतः संज्ञाका अर्थ वस्तुभूत पदार्थ नहीं है । बौद्धोंका उक्त कथन युक्तिसंगत नहीं है। यदि संज्ञा अभिप्रायमात्रका कथन करती है, वास्तविक अर्थका नहीं, तो संज्ञाके द्वारा अर्थक्रियाका नियम नहीं हो सकता है। किन्तु जल संज्ञाके द्वारा जलरूप पदार्थका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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