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________________ कारिका-८४] तत्त्वदीपिका २७३ है। और कथंचित् भ्रान्त मानने पर अनेकान्तकी सिद्धि होती है। इस लिए स्वसंवेदनकी अपेक्षासे कोई भी ज्ञान सर्वथा अप्रमाण नहीं है। इस दृष्टिसे मिथ्याज्ञान भी प्रमाण है। प्रमाण और प्रमाणभासकी व्यवस्था बाह्य अर्थकी अपेक्षासेकी जाती है । आकाशमें जो केशमशकादिका ज्ञान होता है वह प्रमाण भी है, और प्रमाणाभास भी है। जितने अंशमें वह संवादक है उतने अंशमें प्रमाण है, और जितने अंशमें विसंवादक है उतने अंशमें अप्रमाण है। स्वरूपमें संवादक होनेसे स्वरूपकी अपेक्षासे वह प्रमाण है। किन्तु बाह्यमें विसंवादक होनेसे बाह्य अर्थकी अपेक्षासे वह अप्रमाण है। इस प्रकार स्याद्वादन्यायके अनुसार एक ही ज्ञान प्रमाण और अप्रमाण दोनों होता है। एक ही ज्ञानको प्रमाण और अप्रमाणरूप मानने में कोई विरोध नहीं है। जिस प्रकार कालिमाके अभावविशेषके कारण सुवर्णमें उत्कृष्ट-जघन्य परिणाम बनता है, उसी प्रकार जीवमें आवरणके अभावविशेषके कारण सत्य-असत्य प्रतिभासरूप संवेदन परिणामकी सिद्धि होती है। जीव तत्त्वकी सिद्धि करनेके लिए आचार्य कहते हैंजीवशब्दः सबाह्यार्थः संज्ञात्वाद्धेतुशब्दवत् । मायादिभ्रान्तिसंज्ञाश्च मायायैः स्वैः प्रमोक्तिवत् ॥८४॥ जीव शब्द संज्ञा शब्द होनेसे हेतु शब्दकी तरह बाह्य अर्थ सहित है । जिस प्रकार प्रमा शब्दका बाह्य अर्थ पाया जाता है, उसी प्रकार माया आदि भ्रान्तिकी संज्ञाएँ भी अपने भ्रान्तिरूप अर्थसे सहित होती हैं। ___ इस कारिकामें जो 'बाह्य अर्थ' शब्द आया है उसका तात्पर्य यह है कि प्रत्येक संज्ञाका अपनेसे अतिरिक्त कोई वास्तविक प्रतिपाद्य अर्थ होता है। जीव शब्दका जो व्यवहार देखा जाता है वह वस्तुभूत बाह्य अर्थके विना नहीं हो सकता है । जीव शब्द एक संज्ञा (नाम) हैं । जो संज्ञा शब्द होता है उसका वस्तुभूत बाह्य अर्थ भी पाया जाता है । हेतु शब्द एक संज्ञा है, तो उसका बाह्य अर्थ (धूमादि) भी विद्यमान है । कोई यहाँ शंका कर सकता है कि यदि संज्ञाका बाह्य अर्थ नियमसे विद्यमान रहता है, तो माया आदि भ्रान्तिसंज्ञाओंका बाह्य अर्थ भी विद्यमान मानना होगा। उक्त शंका ठीक ही है। क्योंकि माया आदि भ्रान्ति-संज्ञाओंका भी माया आदि भ्रान्तिरूप बाह्य अर्थ विद्यमान रहता ही है। अतः जीव शब्दका सुख, १८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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