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________________ २७२ आप्तमीमांसा [परिच्छेद-७ सद्भाव होनेसे हेतु व्यभिचारी हो जाता है। और व्यभिचारी हेतुसे साध्यकी सिद्धि नहीं हो सकती है। यदि अर्थप्राकट्य ज्ञानका धर्म है, तो वह ज्ञानके समान ही अप्रत्यक्ष होगा। तब उसके द्वारा भी परोक्ष ज्ञानकी सिद्धि कैसे हो सकती है। इन्द्रिय प्रत्यक्ष अथवा मानस प्रत्यक्षसे भी ज्ञानकी सिद्धि नहीं हो सकती है, क्योंकि इन्द्रियादि प्रत्यक्ष भी अतीन्द्रिय ( अप्रत्यक्ष ) होनेसे अप्रत्यक्ष ज्ञानके समान ही हैं, परोक्ष ज्ञानसे उनमें कोई विशेषता नहीं है। यदि इन्द्रियादि प्रत्यक्षमें परोक्ष ज्ञानसे स्वसंवेदनरूप विशेषता पायी जाती है, तो इन्द्रियादि प्रत्यक्षसे ही अर्थकी परिच्छित्ति हो जायगी। तब परोक्ष ज्ञानको माननेकी कोई आवश्यकता नहीं है। इसलिए ज्ञान चाहे प्रत्यक्ष हो या परोक्ष, सबका स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होता है । ज्ञानको अप्रत्यक्ष कहना प्रत्यक्ष एवं अनुमान विरुद्ध है । आत्मामें जो सुख और दुःखका ज्ञान होता है, वह यदि प्रत्यक्ष न हो तो आत्मामें सूखके निमित्तसे हर्ष और दुःखके निमित्तसे विषाद नहीं होना चाहिए । जैसे कि एक आत्माके सुख और दुःखसे आत्मान्तरमें हर्ष और विषाद नहीं होता है। इसलिए सब ज्ञानोंका स्वसंवेदन मानना परमावश्यक है। और स्वसंवेदनकी अपेक्षासे सब ज्ञान प्रमाण हैं, कोई भी ज्ञान प्रमाणाभास नहीं है। बौद्ध संवेदनका प्रत्यक्ष मानकर भी यह कहते हैं कि संवेदन प्रतिक्षण निरंश होता है। अर्थात् एक क्षणवर्ती संवेदनका दूसरे क्षणवर्ती संवेदनके साथ कोई अन्वय नहीं है। उनका ऐसा कहना युक्तिसंगत नहीं है । क्योंकि जैसा वे मानते हैं, वैसा अनुभव नहीं होता है और जैसा अनुभव होता है, वैसा वे मानते नहीं हैं । प्रत्यक्षसे अनुभूयमान सुख-दुःखादिबुद्धिरूप स्थिर आत्मामें ही हर्ष, विषाद आदिका अनुभव होता है । यदि ऐसा माना जाय कि यह अनुभव भ्रान्त है, तो प्रश्न होता है कि वह सर्वथा भ्रान्त है या कथंचित् । सर्वथा भ्रान्त माननेपर बाह्य अर्थकी तरह स्वरूपमें भी भ्रान्त होनेसे वह अप्रत्यक्ष ही रहेगा । और ऐसा होनेपर परोक्षज्ञानवादका प्रसंग उपस्थित होगा । और उक्त अनुभवको कथंचित् भ्रान्त माननेपर स्याद्वादन्यायका ही अनुसरण करना पड़ेगा । केवल निर्विकल्पक प्रत्यक्षमें ही परोक्ष ज्ञानसे समानता नहीं है, किन्तु निर्विकल्पकके व्यवस्थापक सविकल्पकमें भी यही बात है। यदि सविकल्पक भी सर्वथा भ्रान्त है, तो बाह्य अर्थकी तरह स्वरूपमें भी भ्रान्त होनेसे वह अप्रत्यक्ष ही होगा! क्योंकि 'अभ्रान्तं प्रत्यक्षम्' प्रत्यक्ष अभ्रान्त होता है, ऐसा बौद्धोंने माना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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