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________________ कारिका-८३ ] .. तत्त्वदीपिका २७१ पड़ेगी। किन्तु परोक्ष ज्ञानका साधक कोई लिङ्ग ( हेतु ) न होनेके कारण अनुमानसे भी परोक्ष ज्ञानकी. सिद्धि नहीं हो सकती है। . मीमांसक अनुमानसे परोक्ष ज्ञानकी सिद्धि करते हैं। उनके अनुसार अर्थप्राकट्य हेतुके द्वारा ज्ञानका अनुमान किया जाता है । यद्यपि ज्ञानका प्रत्यक्ष नहीं होता है, फिर भी 'ज्ञानमस्ति अर्थप्राकटयान्यथानुपपत्ते:', 'ज्ञान है, यदि ज्ञान न होता तो अर्थका प्रत्यक्ष कैसे होता' इस अनुमानके द्वारा परोक्ष ज्ञानकी सिद्धि की जाती है। 'ज्ञाते त्वनुमानादवगच्छिति बुद्धिम्', अर्थके ज्ञात हो जानेपर अनुमानसे बुद्धिका ज्ञान होता है, ऐसा मीमांसकोंका मत है । _____ मीमांसकका उक्त कथन युक्तिसंगत नहीं है। मीमांसक ज्ञानको स्वसंवेदी नहीं मानते हैं। और अर्थप्राकटयके द्वारा ज्ञानका अनुमान करते हैं। किन्तु अर्थप्राकट्य भी तो ज्ञानके समान अप्रत्यक्ष एवं अस्वसंवेदी ही होगा। जब अर्थको जानने वाला ज्ञान अप्रत्यक्ष है, तो उससे होने वाला अर्थप्राकट्य प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है। यदि ज्ञानसे अर्थप्राकटय में स्वसंवेदनरूप विशेषता पायी जातो है, तो फिर स्वसंवेदी अर्थप्राकटयको ही मान लीजिए, और. तब अस्वसंवेदी ज्ञानको माननेकी कोई आवश्यकता नहीं है। अथवा स्वसंवेदी पुरुषको ही मान लेनेसे अर्थका प्रत्यक्ष हो जायगा। अस्वसंवेदी ज्ञानको माननेसे कोई लाभ नहीं है। यहाँ मीमांसक कह सकता हैं कि ज्ञान अर्थसंवित्तिका करण है, और पुरुष कर्ता है, इसलिए करणभूत ज्ञानका मानना आवश्यक है, क्योंकि करण के विना संवित्तिरूप क्रिया नहीं हो सकती है। किन्तु उक्त कथन असंगत ही है । ऐसा एकान्त नहीं है कि पुरुष कर्ता ही होता है, करण नहीं । पुरुष कर्ता होनेके साथ करण भी हो सकता है। जिस प्रकार पुरुष स्वसंवित्तिमें कर्ता भी होता है, और करण भी होता है, उसी प्रकार अर्थपरिच्छित्तिमें भी पुरुषको करण होने में कौनसी बाधा है । अथवा अर्थपरिच्छित्तिमें अर्थप्राकटयको ही करण मान लेना चाहिए। अतः करणभूत परोक्षज्ञानको माननेकी कोई आवश्यकता नहीं है। ... यहाँ हम यह भी पूछ सकते हैं कि मीमांसक जिस अर्थप्राकट्यको परोक्ष ज्ञानका साधक मानते हैं, वह अर्थप्राकटय किसका धर्म है । अर्थका धर्म है, अथवा ज्ञानका धर्म है। यदि अर्थप्राकटय अर्थका धर्म है, तो वह ज्ञानके अभावमें भी रहेगा। क्योंकि ज्ञानके नहीं होनेपर भी अर्थका सद्भाव रहता है। अतः अर्थधर्मरूप अर्थप्राकट्य हेतुका ज्ञानके अभावमें भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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