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[ परिच्छेद-७
प्रमाणाभासनिवात् । सर्वेषां कार्यसिद्धिः स्याद्विरुद्धार्थाभिधायिनाम् ॥ ८१ ॥
बहिरङ्गार्थतैकान्ते
आप्तमीमांसा
केवल बहिरंग अर्थका ही सद्भाव है, ऐसा एकान्त माननेपर प्रमाणाभासका वि हो जाने से विरुद्ध अर्थका प्रतिपादन करनेवाले सब लोगोंके कार्य सिद्धि हो जायगी ।
केवल बहिरंग अर्थका ही सद्भाव मानना बहिरंगार्थतैकान्त है । इसका यह भी तात्पर्य है कि जितना भी बहिरंग अर्थ है, वह सब सत्य है । प्रत्येक ज्ञानका विषय, चाहे वह सम्यग्ज्ञान हो या मिथ्याज्ञान, सत्य है । इस प्रकारके मत में सब ज्ञान प्रमाण हैं, कोई भी ज्ञान प्रमाणभास नहीं है । प्रमाणाभासका सर्वथा अभाव है । और प्रमाणभासके अभाव में परस्पर में विरुद्ध अर्थों का कथन करनेवाले लोगोंके वचनोंको तथा ज्ञानको प्रमाण मानना पड़ेगा ।
बहिरंगार्थतैकान्तवादियोंका मत है कि जितना भी ज्ञान है, वह सब साक्षात् अथवा परम्परासे बहिरर्थ से सम्बद्ध है । क्योंकि उसमें विषयाकारका निर्भास होता है । अग्निका प्रत्यक्ष भी होता है, और अनुमान भी । प्रत्यक्षज्ञान साक्षात् अग्निसे सम्बद्ध है, और अनुमानज्ञान परम्परासे बहिरर्थ से सम्बद्ध है । प्रत्यक्ष और अनुमान दोनोंमें बहिरर्थ अग्निका निर्भास होता है । स्वप्नज्ञान में भी बहिरर्थका निर्भास होता है । इसलिए स्वप्नज्ञान भी साक्षात् या परम्परासे बहिरर्थ से सम्बद्ध है । इस प्रकार सब ज्ञानोंमें बाह्य विषयका अभिनिवेश होता है ।
उक्त मत समीचीन नहीं है । उक्त मतके अनुसार परस्परमें विरुद्ध अर्थके प्रतिपादक शब्दोंका और स्वप्नादिज्ञानोंका अपने विषयके साथ वास्तविक सम्बन्धका प्रसंग प्राप्त होगा । इस मत के अनुसार 'एक तृणके अग्रभागपर सौ हाथियोंका समूह रहता है', इत्यादिवचन, स्वप्नज्ञान, मरीचिकामें जलज्ञान आदि सब प्रमाण हो जायेंगे । कोई कहता है कि अर्थ, सर्वथा क्षणिक है, दूसरा कहता है कि अर्थ सर्वथा अक्षणिक है । उक्त दोनों वचनों तथा ज्ञानोंका सम्बन्ध बाह्य अर्थसे होनेके कारण दोनोंको प्रमाण मानना पड़ेगा ।
बहिरर्थवादीका कहना है कि अर्थ दो प्रकारका लौकिक और दूसरा अलौकिक । लौकिक अर्थ वह है, नको परितोष होता है । जैसे नदीमें जल । यह सत्य
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होता है, एक जिसमें लौकिक ज्ञानका विषय
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