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कारिका-८०] तत्त्वदीपिका
२६७ न्तिक मतमें रूपादि परमाणु चक्षुरादि एक ज्ञानसे ग्राह्य होने पर भी एक नहीं हैं । ज्ञानाद्वैतवादीके यहाँ ज्ञान परमाणु भी सुगतके एक ज्ञानसे ग्राह्य होने पर भी एक नहीं हैं। अतः एकज्ञानग्राह्यत्व हेतुसे अर्थ और ज्ञानमें एकत्वकी सिद्धि नहीं हो सकती है। अर्थ और ज्ञान अनन्यवेद्य होनेसे एक हैं, ऐसा कहना भी उचित नहीं है। अनन्यवेद्यका अर्थ है कि ज्ञानसे भिन्न अर्थका अनुभव नहीं होता हैं। किन्तु वास्तविक बात यह है कि अर्थकी प्रतिति ज्ञानसे भिन्न ही होती है। सबसे बड़ी विशेषता तो यह है कि अर्थका अनुभव बाह्यमें होता है, और ज्ञानका अनुभव अन्तरङ्गमें होता है। इसलिए जो ज्ञान और अर्थमें अशक्यविवेचनत्व हेतुसे अभेदकी सिद्धि करते हैं, उनका वैसा करना भी ठीक नहीं है। अशक्यविवेचनत्वका अर्थ है कि ज्ञान और अर्थको पृथक्-पृथक् नहीं किया जा सकता है। किन्तु ज्ञान और अर्थकी प्रतीति अन्तरङ्ग और बहिरङ्गमें होनेसे उनमें शक्यविवेचनत्वकी ही उपलब्धि होती है। और यह बात सबको अनुभव सिद्ध है।
विज्ञानाद्वैतवादी अर्थ और ज्ञानमें सहोपलंभ ( एक साथ उपलंभ ) होनेसे उनमें अभेदकी सिद्धि करते हैं। यदि यहाँ सहोपलंभका अर्थ एकदा उपलंभ ( एक समयमें उपलंभ ) किया जाय, तो भी ठीक नहीं है। क्योंकि एकक्षणवर्ती अनेक पुरुषोंके ज्ञानोंका भो एक समयमें उपलंभ होता है, फिर भी वे ज्ञान एक नहीं हैं । अर्थ और ज्ञानमें अभेदकी सिद्धिके लिए प्रदत्त दो चन्द्रदर्शनका दृष्टान्त भी साध्य-साधन विकल है। क्योंकि अभेदरूप साध्य और सहोपलंभरूप साधन वस्तुमें ही पाये जाते हैं, भ्रान्तिमें नहीं। सहोपलंभनियमके होनेपर भी भेदकी सिद्धि में कोई विरोध नहीं है। रूप और रसमें सहोपलंभ नियम पाया जाता है, फिर भी वे एक नहीं हैं। विज्ञानाद्वैतवादी दूसरोंको समझानेके लिए शास्त्रोंकी रचना करते हैं, और उनका ज्ञान करते हैं, फिर भी वचनका तथा वचनजन्य तत्त्वज्ञानका निषेध करते हैं, यह कितने बड़े आश्चर्यकी बात है। इस प्रकार विज्ञानाद्वैतवादीका वचन न किसी बातकी सिद्धि करता है, और न किसी बातमें दूषण देता है। इसलिए विज्ञानाद्वैतवादीका निग्रह स्वयं हो जाता है। अतः विज्ञानाद्वैतकी सिद्धि न स्वतः होती है और न परतः । तथा अन्तरङ्गार्थतैकान्त मानने में बुद्धि और वाक्य, जो कि उपाय तत्त्व हैं, भी संभव नहीं हैं।
बहिरङ्गार्थतैकान्तमें दोष बतलानेके लिए आचार्य कहते हैं :- ..
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