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________________ २६६ आप्तमीमांसा [परिच्छेद-७ नीलबुद्धि विशेष्य हैं, और अभेद उनका विशेषण है । यदि विज्ञप्तिमात्रकी ही सत्ता है, तो विशेषण और विशेष्यका भेद नहीं हो सकता है । और यदि भेद है तो विज्ञप्तिमात्रकी सिद्धि नहीं हो सकती है। इसप्रकार प्रतिज्ञादोषका प्रतिपादन किया गया है। इसीप्रकार हेतुदोष भी होता है। विज्ञानाद्वैतवादी पृथगनुपलम्भरूप (पृथक् उपलंभ न होना) हेतुसे ज्ञान और अर्थमें भेदाभावकी सिद्धि करते हैं। किन्तु पृथगनुपलम्भ (हेतू) और भेदाभाव (साध्य) ये दोनों अभावरूप हैं, इस कारणसे इनमें किसी प्रकारका सम्बन्ध सिद्ध नहीं हो सकता है। जैसे गगनकुसुम और शशविषाणमें कोई सम्बन्ध सिद्ध नहीं होता है। धम और पावकमें कार्यकारणसम्बन्धका ज्ञान होने पर ही धूमसे पावककी सिद्धि होती है । पृथगनुपलंभ हेतु और भेदाभाव साध्यमें किसी प्रकारके सम्बन्धके अभावमें पृथगनुपलंभ हेतूसे भेदाभाव साध्यकी सिद्धि नहीं हो सकती है। इसी प्रकार असहानुपलंभ (एक साथ अनुपलंभ न होना) हेतुसे ज्ञान और अर्थ में अभेदकी सिद्धि करना भी ठीक नहीं है। क्योंकि यहाँ हेतु अभावरूप है, और साध्य भावरूप है। किन्तु भाव और अभावमें कोई सम्बन्ध नहीं होता है। तादात्म्य, तदुत्पत्ति आदि सम्बन्ध भावमें ही पाये जाते हैं, अभावमें नहीं। अर्थ और ज्ञानमें पृथगनुपलंभ हेतुसे भेदाभावमात्र सिद्ध होने पर भी ज्ञानमात्रकी सिद्धि नहीं हो सकती है। उससे तो केवल इतना हो सिद्ध होता है कि अर्थ और ज्ञानमें भेदाभाव है । और यदि पृथगनुपलंभ हेतुसे विज्ञानमात्रकी सिद्धि होती है, तो अनुमान और विज्ञानमात्र में ग्रह्यग्राहकभाव मानना पड़ेगा। तथा अनुमान और विज्ञानमात्रमें ग्राह्य-ग्राहकभाव मान लेने पर विज्ञान और अर्थमें भी ग्राह्यग्राहकभाव माननेमें कौन सी आपत्ति है। ___ कुछ लोग सह शब्दको एक शब्दका पर्यायवाची मानकर सहोपलंभनियमरूप हेतुके स्थानमें एकोपलभनियमरूप हेतुका प्रयोग करते हैं। ज्ञान और अर्थमें अभेद है, क्योंकि उनमें एकोपलभनियम है। अर्थात् एक (ज्ञान) का ही उपलंभ होता है, अन्य (अर्थ) का नहीं। यहाँ भी साध्य और साधनके एक होनेसे साध्यकी सिद्धि नहीं हो सकती है। अर्थ और ज्ञानमें अभेद (एकत्व) साध्य है, और एकोपलंभ हेतु है । ये दोनों एक ही अर्थको कहते है। इसी प्रकार अर्थ और ज्ञानमें एकज्ञानग्राह्यत्व हेतुसे एकत्व सिद्ध करना भी ठोक नहीं है। क्योंकि यह हेतु व्यभिचारी है । द्रव्य और पर्याय एक ज्ञानसे ग्राह्य होने पर भी एक नहीं हैं। सौत्रा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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