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कारिका-८२] तत्त्वदीपिका माना गया है। और अलौकिक अर्थ वह है, जिसमें लौकिक जनोंको पारितोष नहीं होता है, किन्तु विद्वज्जनोंको परितोष होता है। जैसे मरीचिकामें जल । मरीचिकीमें जलका ज्ञान विना विषयके नहीं होता है, किन्तु वहाँ विषयके अलौकिक होनेसे लौकिक जनोंको उसका प्रतिभास नहीं होता है । जो विषय सर्वथा अविद्यमान है, उसका न तो प्रतिभास हो सकता है, और न उसका कथन ही हो सकता है। स्वप्नज्ञान, खरविषाणज्ञान आदि मिथ्या माने गये ज्ञान भी अलौकिक अर्थको विषय करते हैं। अत: वे निविषय और मिथ्या नहीं हैं।
बहिरंगार्थतैकान्तवादीका उक्त कथन सर्वथा अलौकिक ही है । यदि सब वचनों और सब ज्ञानोंका विषय सत्य है, तो संसारमें असत्य नामकी कोई वस्तु ही न रहेगी। बहिरर्थवादी स्वप्नज्ञान आदि ज्ञानोंको सावलम्बन सिद्ध करता है। किन्तु इससे विपरीत भी सिद्ध किया जा सकता है। यह कहा जा सकता है कि स्वप्नप्रत्ययकी तरह सब जाग्रत्प्रत्यय निरालम्बन हैं। यदि बहिरर्थवादी विषयाकारनिर्भास हेतुसे स्वप्नादि प्रत्ययोंको भी जाग्रत्प्रत्ययोंकी तरह सालम्बन सिद्ध करता है, तो उसी हेतुसे जाग्रत्प्रत्ययोंको भी स्वप्नादि प्रत्ययोंकी तरह निरालम्बन सिद्ध करमें कौनसी बाधा है। इस प्रकार अन्तरंगार्थतैकान्तवाद सर्वथा असंगत है। जो लोग उसे मानते हैं, उनके यहाँ प्रमाणाभासके अभावमें सब प्रकारके वचनों तथा ज्ञानोंमें प्रमाणताका प्रसंग प्राप्त होगा, और परस्पर विरुद्ध अर्थोकी सिद्धि भी हो जायगी।
उभयैकान्त तथा अवाच्यतैकान्तका निरास करनेके लिए आचार्य कहते हैं
विरोधान्नोभयकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम् । अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते ॥२॥
स्याद्वादन्यायसे द्वेष रखनेवालोंके यहाँ विरोध आनेके कारण उभयैकान्त नहीं बन सकता है। और अवाच्यतैकान्त मानने में भी 'अवाच्य' शब्दका प्रयोग नहीं किया जा सकता है ।
बहिरर्थंकान्त और अन्तरङ्गार्थैकान्त परस्पर विरोधी हैं। बहिरथैकान्तके सद्भावमें अन्तरङ्ग अर्थका सद्भाव नहीं हो सकता है। इसी प्रकार अन्तरङ्गार्थंकान्तके सद्भावमें बहिरर्थका सद्भाव नहीं हो सकता
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