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________________ कारिका-७८] तत्त्वदीपिका २५९ कर्ता कोई पुरुष नहीं है, तो उसमें दोषोंका सद्भाव किसी भी प्रकार संभव नहीं है। दोष निराश्रित नहीं रह सकते हैं। और दोषोंके अभावमें प्रमाणताके कारणभूत गुणोंका सद्भाव वहाँ स्वयमेव सिद्ध है। मीमांसकका उक्त कथन भी विचारसंगत नहीं है। कारणमें दोषोंकी निवृत्ति होनेसे कार्यमें भी दोषोंकी निवृत्ति हो जाती है, ऐसा मीमांसक स्वयं मानते हैं। तब दोष रहित कर्ताकी भी संभावना होनेसे उसके वचनोंमें दोषका अभाव होनेके कारण प्रामाण्य क्यों नहीं होगा। जब निर्दोष कर्ताके होनेसे पौरुषेय वचनोंमें दोषोंका अभाव है, तब प्रामाण्यके कारणभूत गुणोंका सद्भाव स्वतः सिद्ध हो जाता है। ''यदि मीमांसक किसी पुरुषको निर्दोष नहीं मानते हैं, तो वेदके अर्थका सम्यक् व्याख्यान भी नहीं हो सकता है । अल्पज्ञ पुरुषोंको वेदका व्याख्याता माननेसे वेद वाक्योंका अर्थ मिथ्या भी किया जा सकता है । क्योंकि वेद वाक्यका यह अर्थ है और यह अर्थ नहीं है, ऐसा शब्द तो कहते नहीं हैं, किन्तु रागादि दोषोंसे दूषित पुरुष ही अर्थकी कल्पना करते हैं । यद्यपि यह कहा जाता है कि अनादि परम्परासे वेदका अर्थ ऐसा ही चला आ रहा है, किन्तु दुष्ट अभिप्राय आदिके कारण वेदका अर्थ अन्यथा भी तो किया जा सकता है । वेदके अध्ययन करनेवाले, व्याख्यान करनेवाले और सुननेवाले, सभीको रागादि दोषोंसे दूषित होनेके कारण वेद वाक्योंका सम्यक् अर्थ होना नितान्त असंभव है। वचनोंमें जो प्रमाणता आती है वह १. शब्दे दोषोद्भवस्तावद्वक्त्रधीन इति स्थितम् । तदभावः क्वचित्तावद् गुणवद्वस्तृकत्वतः ।। तद्गुणरपकृष्टानां शब्दे संक्रान्त्यसंभवात् । यद्वा वक्तुरभावेन न स्युर्दोषा : निराश्रयाः ॥. ... .......... मी० श्लो० सू० २ श्लो० ६२-६३ २. अर्थोऽयं नायमों इति.. शब्दा. वदन्ति न। . . कल्प्योऽयमर्थः पुरुषस्ते च रागादिसंयुताः ॥ . - तेनाग्रिहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकाम . इति श्रुतौ। खादेत् श्वमांसमित्येष नार्थ, इत्यत्रका प्रमा॥ ...... --प्रमाणवा०.३।३१३, ३१९ ३. स्वयं रागादिमान्नार्थं , वेति वेदस्य, नान्यतः ।। .न वेदयति वेदोऽपि, वेदार्थस्यः कुतो गतिः ॥ ..::.. -प्रमाणवा० ३।३१८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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