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________________ २६० आप्तमीमांसा [परिच्छेद-६ वक्ताके गुणोंकी अपेक्षासे आती है। वक्ता यदि निर्दोष है, तो उसके वचन प्रमाण हैं, और वक्ता यदि सदोष है, तो उसके वचन अप्रमाण हैं । जैसे पीलिया रोगवाले व्यक्तिको चक्षुसे पदार्थोंका जो ज्ञान होता है, वह मिथ्या है, और निर्दोष चक्षुसे जो ज्ञान होता है, वह सम्यक् है। जो पुरुष अनाप्त है, असर्वज्ञ है, रागादि दोषोंसे दूषित है, वह दूसरोंको पदार्थोंका सम्यक् ज्ञान नहीं करा सकता है। जैसे जन्मसे अन्धा पुरुष दूसरे पुरुषोंको रूपका दर्शन नहीं करा सकता है। वेदके निर्दोष होनेपर ही वेदके द्वारा पदार्थोंका ठीक-ठीक ज्ञान हो सकता है। और वेदमें निर्दोषता दो प्रकारसे संभव है-वेदके अपौरुषेय होनेसे अथवा वेदका कर्ता गुणवान् होनेसे । किन्तु जो बात युक्तिसंगत हो उसीका मानना ठीक है। वेदमें अपौरुषेयत्व युक्तिविरुद्ध है, और पौरुषेयत्व युक्तिसंगत है। अथवा वेदको अपौरुषेय मान लेनेपर भी उसमें जो बात युक्तिसंगत हो उसीका मानना ठीक है । जैसे 'अग्निहिमस्य भेषजम्', 'द्वादश मासाः संवत्सरः'--'अग्नि ठण्डकी औषधि है', 'बारह मासोंका एक वर्ष होता है' इत्यादि वाक्योंको मानना ठीक है। किन्तु जो बात युक्तिसंगत नहीं है उसका मानना ठीक नहीं है। जैसे 'अग्निष्टोमेन यजेत् स्वर्गकामः'-'जिसको स्वर्गकी इच्छा हो वह अग्निष्टोम यज्ञ करे' इत्यादि वाक्योंको मानना ठीक नहीं है। इसलिए जो बात तर्ककी कसौटीपर ठीक उतरती हो उसीका मानना ठीक है, सबका नहीं। जब यह सिद्ध हो जाय कि यह आप्तका वाक्य है, तो उसको प्रमाण माननेमें कोई बाधा नहीं है। अतः जैसे हेतुवाद (अनुमान) प्रमाण है, वैसे ही आज्ञावाद (आगम) भी प्रमाण है। यहाँ ऐसी शंका करना ठीक नहीं है कि सराग पुरुषोंको भी वीतरागके समान आचरण करने के कारण आप्त और अनाप्तका निर्णय करना कठिन है । क्योंकि जितने एकान्तवाद हैं, वे सब स्याद्वादके द्वारा प्रतिहत हो जाते हैं। जिसके वचन युक्ति और आगमसे अविरोधी हैं वह निर्दोष है, और जिसके वचन युक्ति और आगमसे विरुद्ध हैं, वह सदोष है । इस प्रकार निर्दोषता और सदोषताके ज्ञानसे आप्त और अनाप्तका निर्णय करना कठिन नहीं है। जिसके वचन अनिश्चित हैं, उसमें आप्त और अनाप्तका संदेह हो सकता है। किन्तु जिसके वचन निश्चित हैं, उसके आप्त होनेमें कोई सन्देह नहीं है। आप्तका व्युत्पत्यर्थ होता हैआप्तिर्यस्यास्तीत्याप्त:-जिसमें आप्ति पायी जाय वह आप्त है । आप्तिके दो अर्थ होते हैं-'साक्षात्करणादिगुण: सम्प्रदायाविच्छेदो वा'-- सूक्ष्म, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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