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________________ २५८ आप्तमीमांसा [ परिच्छेद-६ मानते हैं । और जैन कालासुरको वेदका कर्ता मानते हैं । इसलिए वेदका कोई कर्ता नहीं है, ऐसा कहने मात्रसे वेदमें कर्ताका अभाव सिद्ध नहीं हो सकता है। .: मीमांसक मानते हैं कि वेद अपौरुषेय है। और वेदका अध्ययन सदा वेदके अध्ययन पूर्वक होता चला आया है। क्योंकि वह वेदका अध्ययन है, जैसे कि वर्तमानकालीन वेदका अध्ययन' । किसीने वेदको बनाकर वेदका अध्ययन नहीं कराया। किन्तु यही बात पिटकत्रय आदि ग्रन्थोंके विषयमें भी कही जा सकती है। ऐसा कहनेमें कोई भी बाधा नहीं है कि पिटकत्रयका अध्ययन उनके अध्ययन पूर्वक ही होता आया है। और किसीने बनाकर उनका अध्ययन नहीं कराया । इसलिए वेदकी तरह पिटकत्रयको भी अपौरुषेय मानना चाहिए, अथवा पिटकत्रयकी तरह वेदको भी पौरुषेय मानना चाहिए। वेदमें जो अतिशय पाये जाते हैं, वे सब अतिशय पिटकत्रय आदिमें भी पाये जाते हैं। वैदिक मंत्रोंमें जो शक्ति है, वह अन्य मंत्रोंमें भी है। ऐसा नहीं है कि वैदिक मंत्रोंका प्रयोग करनेसे ही उनका फल मिलता है, और अन्य मंत्रोंका प्रयोग करनेसे उनका फल नहीं मिलता है। मीमांसक वेदको अनादि मानते हैं। किन्तु अपौरुषेयत्वकी तरह वेदमें अनादित्व भी सिद्ध नहीं हो सकता है। थोड़ी देरके लिए वेदको अनादि मान भी लिया जा, फिर भी वेदमें पौरुषेयत्वके अभावमें अविसंवादिता नहीं आ सकती है। यदि अनादि होनेसे ही कोई बात प्रमाण हो तो मातृविवाहादिरूप म्लेच्छव्यवहार तथा चोरी, व्यभिचार आदिको भी प्रमाण मानना चाहिए। वेदको अपौरुषेय मानने पर भी उसमें प्रमाणता नहीं आसकती है, क्योंकि प्रमाणताके कारणभूत गुण वेदमें नहीं हैं । गुणोंका आश्रय पुरुष है । और पुरुषके अभावमें वेदमें गुण कैसे आ सकते हैं। ____ मीमांसकोंका कहना है कि वेदका कोई कर्ता न होनेसे वेदमें दोषोंका सर्वथा अभाव है । दोषोंका होना पुरुषके आश्रित है । और जब वेदका १. वेदाध्ययनं सर्वं तदध्ययनपूर्वकम् । वेदाध्ययनवाच्यत्वादधुनाध्ययनं यथा ।।-मीमांसाश्लोकवा० अ० ७ श्लोक ३५५ २. म्लेच्छादिव्यवहाराणां नास्तिक्यवचसामपि । अनादित्वाद् तथाभावः । ......... ....... .................. ..-प्रमाणवा० ३।२४६, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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