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आप्तमीमांसा
[ परिच्छेद-६
ही होती है, तो आगमसे उनकी सिद्धि नहीं हो सकती है। और यदि आगमसे ही सब पदार्थोंकी सिद्धि होती है, तो हेतुसे उनकी सिद्धि नहीं हो सकती है । इसलिए उभयैकान्त किसी भी प्रकार संभव नहीं है । उक्त दोषोंके भयसे कुछ लोग तत्त्वको अवाच्य कहते हैं । उनका कहना भी युक्तिसंगत नहीं है । यदि तत्त्व अवाच्य है तो उसके विषय में चुप रहना ही अच्छा है । उसको अवाच्य कहने से तो वह 'अवाच्य' शब्दका वाच्य हो जाता है । इस प्रकार उभयेकान्त और अवाच्यतैकान्त दोनों ही अयुक्त एवं असंगत हैं ।
एकान्तका निराकरण करके अनेकान्तकी सिद्धि करनेके लिए आचार्य कहते हैं
वक्तर्यनाप्ते यद्धेतोः साध्यं तद्धेतुसाधितम् । आप्ते वक्तरि तद्वाक्यात् साध्यमागमसाधितम् ॥७८॥ वक्ता अनाप्त होने पर जो हेतुसे सिद्ध किया जाता है वह हेतुसाधित है । और वक्ता के आप्त होने पर उसके वचनोंसे जो सिद्ध किया जाता है वह आगमसाधित है ।
यहाँ यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है कि आप्त क्या है, और अनाप्त क्या है । जो जहाँ अविसंवादक होता है वह वहाँ आप्त होता है । और इससे विपरीत अनाप्त होता है । तत्त्वका यथार्थ ज्ञान होनेसे आप्तके द्वारा उपदिष्ट तत्त्वोंमें कोई विरोध न होनेका नाम अविसंवाद है । आप्तके वचन अविसंवादी होते हैं । और अनाप्तके वचनों में सर्वत्र विरोध पाया जाता है । अतः अनाप्तके वचन विसंवादी होते हैं । वक्ता जहाँ आप्त होता है, वहाँ उसके वचनोंसे साध्यकी सिद्धिकी जाती है । तथा आप्तके वचनोंसे की गयी सिद्धिमें किसी दोष या विरोधकी संभावना नहीं रहती है । आप्त यथार्थ वक्ता होता है । उसमें यथार्थ ज्ञान आदि गुण पाये जाते हैं । किन्तु जहाँ वक्ता आप्त नहीं हैं वहाँ उसके वचनों पर कोई विश्वास नहीं किया जा सकता है । जहाँ वक्ता अनाप्त होता है वहाँ उसके वचनोंसे साध्यकी सिद्धि नहीं हो सकती है । इसलिए वहाँ साध्यकी सिद्धिके लिए हेतुका मानना आवश्यक है ।
जो लोग अतीन्द्रिय पदार्थों में केवल श्रुति (वेद) को ही प्रमाण मानते हैं वे आप्त नहीं हो सकते हैं, चाहे वे जैमिनि हों या अन्य कोई । क्योंकि उनको श्रुतिके अर्थका परिज्ञान नहीं है । जैमिनि आदि सर्वज्ञ
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