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कारिका-७७] तत्त्वदीपिका
२५५ सकता है। आगमसे परम ब्रह्मकी सिद्धि होती है, यज्ञ आदि कर्मकाण्डकी नहीं, इसका नियामक क्या है ? श्रावण प्रत्यक्षमें प्रामाण्यके अभावमें वैदिक शब्दोंको सुनकर वेदके अर्थका भी यथार्थ निश्चय नहीं हो सकेगा। अनुमान प्रमाणके अभावमें 'वैदिकशब्दजन्य श्रावण प्रत्यक्ष प्रमाण है, अन्य नहीं', ऐसा निर्णय भी नहीं हो सकता है। इसलिये आगमसे तत्त्वकी सिद्धि करनेवालोंको भी प्रत्यक्ष और अनुमान मानना अवश्यक है ।
कुछ लोगोंका कहना है कि प्रत्यक्ष और अनुमानसे ही पदार्थों की सिद्धि होती है, आगमसे नहीं। यह बात भी ठीक नहीं है। चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण और इनके फल आदिका ज्ञान ज्योतिषशास्त्रसे ही होता है । ज्योतिषशास्त्रके विना प्रत्यक्ष या अनुमानसे ग्रहण आदि का ज्ञान नहीं हो सकता है । जो योगी प्रत्यक्षदर्शी हैं उनको भी योगिप्रत्यक्षकी उत्पत्तिके पहले परोपदेश (आगम)का आश्रय लेना पड़ता है। परोपदेशके अभावमें योगिप्रत्यक्षकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है। इसी प्रकार परार्थानुमानरूप श्रुतमयी और स्वार्थानुमानरूप चिन्तामयी भावनाके चरम प्रकर्षके विना अतीन्द्रिय प्रत्यक्षकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है। अनुमानसे ज्ञान करने वालोंको भी अत्यन्त परोक्ष पदार्थोंमें साध्यके अविनाभावी साधनका ज्ञान करनेके लिए आगमका आश्रय लेना पड़ता है। अतः केवल अनुमानसे या केवल आगमसे अथवा आगमनिरपेक्ष प्रत्यक्ष और अनुमानसे ही पदार्थोंकी सिद्धि मानना किसी भी प्रकार ठीक नहीं है। ___ उभयकान्त तथा अवाच्यतैकान्तका निराकरण करनेके लिए आचार्य कहते हैं
विरोधान्नोभयकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम् । ...
अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते ॥७७॥ स्याद्वादन्यायसे द्वेष रखने वालोंके यहाँ विरोध आनेके कारण उभयैकान्त नहीं बन सकता है । और अवाच्यतैकान्तमें भी 'अवाच्य' शब्दका प्रयोग नही किया जा सकता है। ___ पहले यह बतलाया जा चुका है कि पदार्थोंकी सिद्धि न तो केवल हेतुसे होती है, और न केवल आगमसे । जो लोग केवल हेतुसे ही पदार्थों की सिद्धि मानते हैं, अथवा केवल आगमसे ही पदार्थों की सिद्धि मानते हैं, उनके मतोंका खण्डन भी किया जा चुका है। अब यदि कोई दोनों एकान्तोंको मानना चाहे तो ऐसा मानना सर्वथा असंभव है। क्योंकि परस्परमें सर्वथा विरोधी दोनों बातें कैसे हो सकती हैं । यदि पदार्थोंकी सिद्धि हेतुसे
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