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आप्तमीमांसा [परिच्छेद-४ लाभ नहीं है। इस प्रकार कार्य और कारणमें अभेदैकान्त मानना युक्ति और प्रतीतिविरुद्ध है।
उभयैकान्त तथा अवाच्यतैकान्तमें दोष बतलाने के लिए आचार्य कहते हैं
विरोधान्नोभयैकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम् ।
अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्ति वाच्यमिति युज्यते ॥७॥ स्याद्वादन्यायसे द्वेष रखनेवालोंके यहाँ विरोध आनेके कारण उभयैकात्म्य नहीं बन सकता है। और अवाच्यतैकान्तमें भी अवाच्य शब्दका प्रयोग नहीं किया जा सकता है।
अवयव-अवयवी आदि सर्वथा भिन्न हैं, और सर्वथा अभिन्न हैं, इस प्रकारका उभयकान्त संभव नहीं है। क्योंकि उनमें परस्परमें विरोध होनेसे उनमें एकात्म्य अथवा तादात्म्य असंभव है। अनेकान्तवादमें अपेक्षाभेदसे भिन्न और अभिन्न पक्ष मानने में कोई विरोध नहीं आता है, किन्तु एकान्तवादमें एक पक्ष ही माना जा सकता है, दोनों पक्षोंको मानना सर्वथा अनुचित है। ऐसा कैसे हो सकता है कि कोई वस्तु किसी अन्य वस्तुसे सर्वथा भिन्न भी हो और सर्वथा अभिन्न भी हो। ऐसा मानने में विरोध स्पष्ट है। इसी प्रकार अवाच्यतैकान्त पक्ष भी ठीक नहीं है । क्योंकि तत्त्वके सर्वथा अवाच्य होनेपर उसको 'अवाच्य' शब्दके द्वारा भी नहीं कहा जा सकता है। और यदि 'अवाच्य' शब्दके द्वारा उसका प्रतिपादन किया जाता है, तो वह अवाच्य नहीं रह सकता है।
इस प्रकार एकान्त पक्षमें अनेक दोष आते हैं। किन्तु स्याद्वादन्यायके मानने वालोके यहाँ किसी भी दोषका आना संभव नहीं है ! अवयवअवयवी आदि कथंचित् भिन्न भी हैं और कथंचित अभिन्न भी हैं। तत्त्व कथंचित् वाच्य भी है, और कथंचित् अवाच्य भी है। क्योंकि अपेक्षाभेदसे वस्तुमें अनेक धर्मों के होने में कोई विरोध संभव नहीं है। __ भेदैकान्त और अभेदैकान्तका निराकरण करके अनेकान्तकी सिद्धि करनेके लिए आचार्य कहते हैं
द्रव्यपर्याययोरक्यं तयोरव्यतिरेकतः । परिणामविशेषाच्च शक्तिमच्छक्तिभावतः ॥७१।। संज्ञासंख्याविशेषाच्च स्वलक्षणविशेषतः । प्रयोजनादिभेदाच्च तन्नानात्वं न सर्वथा ।।७२।।
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