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कारिका-६९] तत्त्वदीपिका
२४३ विरोध होगा । संवृतिके मिथ्या होनेसे द्वित्वसंख्याको संवृतिरूप मानना भी ठीक नहीं है। ____सांख्य मानते हैं कि कार्य और कारण सर्वथा एक हैं। प्रधान कारक है और महत् आदि उसके कार्य हैं। कार्य कारणसे भिन्न नहीं है, किन्तु अभिन्न है। यदि कार्य और कारण यथार्थमें सर्वथा एक हैं तो, या तो कारण ही रहेगा या कार्य ही रहेगा, या तो प्रधानका ही सद्भाव होगा या महत् आदिका ही । तथा कार्य और कारणमेंसे किसी एकके अभावमें दूसरेका अभाव स्वतः हो जाता है। क्योंकि कार्य और कारण परस्परमें अविनाभावी हैं। कारणके विना कार्य नहीं होता है, और कार्यके विना कारणका अस्तित्व भी सिद्ध नहीं हो सकता है। जब कोई कार्य हो तो कोई उसका कारण भी होता है। अतः कार्यके अभावमें कार्यके अविनाभावी कारणका अभाव निश्चित है, और कारणके अभावमें कारणके अविनाभावी कार्यका अभाव भी निश्चित है ।
सांख्य यह भी मानते हैं कि महत् आदि कार्य प्रधानरूप कारणमें लीन हो जाते हैं । अतः कार्यका अभाव होने पर भी एक नित्य कारण (प्रधान) के सद्भावमें कोई बाधा नहीं है। यदि ऐसा है तो कार्य और कारण एक हो जायगे। और ऐसा होने पर उनमें द्वित्वसंख्याका प्रयोग नहीं हो सकेगा। यदि द्वित्वसंख्याका प्रयोग संवृतिसे होता है, तो संवृतिके मिथ्या होनेसे द्वित्व संख्या भी मिथ्या होगी। प्रधानकी सिद्धि किसी प्रमाणसे होती भी नहीं है । प्रत्यक्षसे प्रधानकी सिद्धि नहीं होती है । यदि प्रत्यक्षसे प्रधानकी सिद्धि होती हो तो किसीको प्रधानके विषय में विवाद ही क्यों होता। अविनाभावी हेतुके अभावमें अनुमानसे भी प्रधानकी सिद्धि नहीं होती है । इसी प्रकार यदि पुरुष और चैतन्यमें भी सर्वथा अभेद है, तो दोनोंमें से किसी एकका ही सद्भाव रहेगा। चैतन्यका पुरुषमें प्रवेश होनेसे पुरुष मात्रका अथवा पुरुषका चैतन्यमें प्रवेश होनेसे चैतन्य मात्रका सद्भाव रहेगा। पुरुष और चैतन्य परस्परमें अविनाभावी हैं। अतः एकके अभावमें दूसरेका भी अभाव होना निश्चित है । पुरुषके अभावमें चैतन्यका अभाव और चैतन्यके अभावमें पुरुषका अभाव निश्चित है । बन्ध्यापुत्रका रूप और आकार अविनाभावी हैं। अतः वन्ध्यापुत्रके रूपके अभावमें आकारका अभाव और आकारके अभावमें रूपका अभाव स्वयं सिद्ध है। पुरुष और चैतन्य यदि सर्वथा एक हैं, तो उनमें द्वित्वसंख्याका प्रयोग भी नहीं होना चाहिए। तथा संवृतिसे द्वित्वसंख्याका प्रयोग मानने में कोई
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