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________________ २४२ आप्तमीमांसा [परिच्छेद-४ उनमें रहने वाले गुण, जाति आदिका भी अभाव हो जायगा। ___इस कारिकामें कार्यके भ्रान्त होनेसे कारणके भ्रान्त होनेका विचार किया गया है। ऐसा संभव नहीं है कि कार्य मिथ्या हो और कारण सत्य हो। यदि कार्य मिथ्या है, तो कारण भी मिथ्या अवश्य होगा। जो लोग ऐसा मानते हैं कि परमाणुओंके कार्य पृथिवी आदि चार भूत मिथ्या हैं, उनके मतमें पृथिवी आदि भूतोंके कारण परमाणु भी मिथ्या ही होंगे। परमाणु प्रत्यक्षसिद्ध तो हैं नहीं। किन्तु कार्यके द्वारा कारण का अनुमान करके परमाणुओंकी सिद्धि की जाती है । ‘परमाणुरस्ति घटाधन्यथानुपपत्तेः' । परमाणु हैं, अन्यथा घटादिकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है'। इस अनुमानसे परमाणुओंकी सिद्धि की जाती है । प्रत्यक्षके द्वारा तो स्थूलाकार स्कन्धकी ही प्रतीति होती है, और परमाणुओंकी प्रतीति कभी भी नहीं होती है । परमाणुओंका ज्ञान दो प्रकारसे ही संभव है-प्रत्यक्ष द्वारा या अनुमान द्वारा । प्रत्यक्षसे तो उनका ज्ञान होता नही है । कार्यके भ्रान्त होनेसे कार्य के द्वारा उनका अनुमान भी नहीं किया जा सकता है। ऐसी स्थितिमें परमाणुओंके जाननेका कोई उपाय ही शेष नहीं रह जाता है। प्रत्युत कार्यके भ्रान्त होनेसे परमाणुओंमें भ्रान्तता ही सिद्ध होती है। कार्य और कारण दोनोंके भ्रान्त होनेसे दोनोंका अभाव स्वत: प्राप्त है । और दोनोंका अभाव होनेसे उनमें रहने वाले गुण, सामान्य, क्रिया आदिका भी अभाव हो जायगा। गुण आदि या तो कार्य में रहेंगे या कारणमें । किन्तु दोनोंके अभावमें आधारके विना गुण आदि कैसे रह सकते हैं । गगनकुसुमके अभावमें उसमें सुगन्धि नहीं रह सकती है। अतः यदि गुण, जाति आदिका सद्भाव अभीष्ट है, तो कार्यद्रव्यको अभ्रान्त मानना भी आवश्यक है। और स्कन्धरूप कार्यद्रव्य अभ्रान्त तभी हो सकता है, जब परमाणु अपने पूर्वरूपको छोड़कर स्कन्धरूप पर्यायको धारण करें। इस प्रकार परमाणुओंमें अनन्यतैकान्त मानना ठीक नहीं है। कार्य-कारणमें सर्वथा अभेदका खण्डन करनेके लिए आचार्य कहते हैं एकत्वेऽन्यतराभावः शेषाभावोऽविनाभुवः । द्वित्वसंख्याविरोधश्च संवृतिश्चेन्मृषैव सा ॥६९॥ कार्य और कारणको सर्वथा एक मानने पर उनमेंसे किसी एकका अभाव हो जायगा। और एकके अभावमें दूसरेका भी अभाव होगा ही। क्योंकि उनका परस्परमें अविनाभाव है। द्वित्वसंख्याके माननेमें भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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