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________________ २३३ कारिका-६२ ] तत्त्वदीपिका एककी अनेकोंमें वृत्ति नहीं हो सकती है, क्योंकि उसके भाग (अंश) नहीं होते हैं। और यदि एकके अनेक भाग हैं, तो भागवाला होनेके कारण वह एक नहीं हो सकता है। इस प्रकार अनाहत मतमें वृत्तिविकल्पके द्वारा अनेक दोष आते हैं। ___ नैयायिक-वैशेषिक मानते हैं कि अवयवी समवाय सम्बन्धसे अवयवोंमें रहता है। यहाँ प्रश्न यह है कि अवयवी अपने अवयवोंमें एक देशसे रहता है या सर्वदेशसे रहता है। एक अवयवी अनेक अवयवोंमें भिन्नभिन्न देशसे नहीं रह सकता है, क्योंकि उसको प्रदेशरहित माना गया है। और यदि अवयवी अपने अवयवोंमें सर्वदेशसे रहता है, तो जितने अवयव हैं, उतने ही अवयवी मानना होंगे, क्योंकि प्रत्येक अवयवमें पूराका पूरा अवयवी रहेगा। एक विकल्प यह भी होता है कि अवयवी अवयवोंमें भिन्न-भिन्न स्वभावसे रहेगा या एक ही स्वभावसे । भिन्नभिन्न स्वभावसे रहने पर जितने अवयव हैं, उतने ही अवयवी होंगे। और एक स्वभावसे रहने पर सब अवयव एक हो जावेंगे। इस प्रकार वृत्तिविकल्पके द्वारा अवयवीका अवयवोंमें रहना संभव नहीं है। इसी प्रकार गुणोंका गुणीमें, कार्यका कारणोंमें, सामान्यका सामान्यवान्में, और विशेषका विशेषवान्में रहना भी संभव नहीं है। अतः अवयवअवयवी आदिमें सर्वथा भेद मानना ठीक नहीं है। नैयायिक-वैशेषिकका कहना है कि अवयवी अवयवोंमें न एक देशसे रहता है, और न सर्वदेशसे, किन्तु समवाय सम्बन्धसे रहता है। यह कथन भी ठीक नहीं है। क्योंकि यहाँ भी वही प्रश्न होगा कि अवयवी का अवयवोंमें समवाय एक देशसे है, या सर्वदेशसे । और पहले दिये गये दूषण इस पक्षमें भी ज्योंके त्यों बने रहेंगे। ये दूषण एकान्त पक्षमें ही आते हैं, अनेकान्त मतमें नहीं । अनेकान्त मतके अनुसार अवयव-अवयवी आदिमें तादात्म्य होनेके कारण पूर्वोक्त दूषणोंमेंसे कोई दूषण संभव नहीं है। अवयव-अवयवो, गुण-गुणी आदि न तो सर्वथा पृथक-पृथक हैं, और न समवाय सम्बन्धसे एक दूसरेमें रहते हैं। अवयवीको अवयवोंसे पृथक् नहीं कर सकते हैं, और गुणीको गुणोंसे पृथक् नहीं कर सकते हैं। वे दोनों एक दूसरेमें इस प्रकार मिले हुए हैं, जैसे ज्ञानाद्वैतवादियोंके यहाँ ज्ञानके वेद्य और वेदक आकार ज्ञानमें मिले हुए हैं। ज्ञान और आकारोंमें तादात्म्य होनेसे वहाँ ऐसा विकल्प नहीं किया जा सकता कि ज्ञान अपने आकारोंमें एक देशसे रहता है या सर्वदेशसे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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