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चतुर्थ परिच्छेद नैयायिक-वैशेषिकके भेदवादका खण्डन करने के लिए आचार्य कहते हैं
कार्यकारणनानात्वं गुणगुण्यन्यतापि च ।
सामान्यतद्वदन्यत्वं चैकान्तेन यदीष्यते ॥६१॥ यदि नैयायिक-वैशेषिक कार्य-कारणमें, गुण-गुणीमें और सामान्यसामान्यवान्में सर्वथा भेद मानते हैं ( तो ऐसा मानना ठीक नहीं है )
इस कारिका द्वारा नैयायिक-वैशेषिकका मत उपस्थित किया गया है। नैयायिक-वैशेषिक अवयव-अवयवीमें, गुण-गणीमें, कार्य-कारणमें, सामान्य-सामान्यवान्में, और विशेष-विशेषवान्में सर्वथा भेद मानते हैं । अवयवोंसे अवयवीका प्रतिभास भिन्न होता है, कारणसे कार्यका प्रतिभास भिन्न होता है, गुणोंसे गुणीका प्रतिभास भिन्न होता है, सामान्यसे सामान्यवान्का प्रतिभास भिन्न होता है, और विशेषसे विशेषवान्का प्रतिभास भिन्न होता है। अतः प्रतिभासभेद होनेसे अवयव, अवयवी आदि पृथक्पृथक् हैं। सह्याचल और विन्ध्याचलके भिन्न होनेका कारण प्रतिभास भेद ही है। वह प्रतिभासभेद अवयव-अवयवी आदिमें भी पाया जाता है। प्रतिभासभेदका कारण भी लक्षणभेद है। कार्य, कारण आदिका लक्षण एक दूसरेसे भिन्न है, और वह भिन्न लक्षण भिन्न प्रतिभासका हेतु है। अतः प्रतिभासभेदके कारण अवयव-अवयवी आदिमें सर्वथा भेद मानने में कोई बाधा नहीं है। कार्य-कारण आदिका देश भिन्न-भिन्न होनेसे भी उनमें भेद है। कार्य अपने अवयवोंमें रहता है, और कारण अपने देशमें रहता है। यही बात गुण-गुणी, अवयव-अवयवी आदिके विषयमें जानना चाहिए। जो लोग अभिन्न देशके कारण कार्य, कारण आदिमें तादात्म्य मानते हैं, उनका वैसा मानना प्रतीतिविरुद्ध है । क्योंकि उनमें न तो शास्त्रीय देशाभेद सिद्ध होता है, और लौकिक देशाभेद । ऐसा नैयायिक-वैशेषिकका मत है। इस मतका निराकरण करनेके लिए आचार्य कहते हैं
एकस्यानेकवृत्तिने भागाभावाद्बहूनि वा। भागित्वाद्वास्य नैकत्वं दोषो वृत्तेरनाहते ॥६२॥
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