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कारिका-५४ ]
तत्त्वदीपिका बौद्ध कहते हैं कि यदि विनाश पदार्थसे भिन्न होता है, तो पहलेकी तरह पदार्थकी उपलब्धि होना चाहिए, और यदि विनाश पदार्थसे अभिन्न होता है, तो इसका अर्थ यह हुआ कि विनाशके हेतुसे पदार्थ ही उत्पन्न हुआ, जो कि पहिलेसे ही विद्यमान है। यहाँ हम भी कह सकते हैं कि उत्पादका हेतु उत्पादको पदार्थसे अभिन्न करता है या भिन्न । यदि अभिन्न करता है, तो सत्का उत्पाद करता है या असत्का। सत्का उत्पाद करना व्यर्थ है। गगनकुसुमकी तरह असत् पदार्थका उत्पाद तो संभव ही नहीं है। यदि उत्पादका हेतु उत्पादको पदार्थसे भिन्न करता है, तो भी उससे कोई लाभ नहीं। भिन्न उत्पाद होनेसे पदार्थको क्या हुआ, कुछ नहीं। इसलिए यदि विनाशके लिए हेतुका समागम नहीं होता है, तो उत्पादके लिए भी हेतुका समागम व्यर्थ है । तात्पर्य यह है कि उत्पाद और विनाश दोनों सहेतुक हैं। एकको सहेतुक और दूसरेको निर्हेतुक मानना प्रतीतिविरुद्ध है।
बौद्धमतमें क्षणिक परमाणुओंकी सिद्धि नहीं होती है। स्कन्धोंको भी सिद्धि नहीं होती है । इस बातको बतलानेके लिए आचार्य कहते हैं
स्कन्धसंततयश्चैव संवृतित्वादसंस्कृताः।
स्थित्युत्पत्तिव्ययास्तेषां न स्युः खरविषाणवत् ।।५४।। स्कन्धोंकी संततियाँ भी संवृतिरूप होनेसे अपरमार्थभूत हैं। उनमें खरविषाणके समान स्थिति, उत्पत्ति और व्यय नहीं हो सकते हैं।
बौद्ध पाँच प्रकारके स्कन्ध मानते हैं-रूपस्कन्ध, वेदनास्कन्ध, विज्ञानस्कन्ध संज्ञास्कन्ध और संस्कारस्कन्ध । इन पाँच प्रकारके स्कन्धोंको संतति चलती रहती है । किन्तु इन स्कन्धोंकी सन्तान भी संवृत्तिरूप होनेसे अपरमार्थभूत है। जो संवृतिरूप नहीं होता है वह परमार्थभूत होता है, जैसे कि बौद्धों द्वारा माना गया स्वलक्षण। जब स्कन्धोंकी सन्तति अपरमार्थभूत है तो पदार्थका लक्षण (स्थिति, उत्पत्ति और व्यय) भी उसमें संभव नहीं हो सकता है। अपरमार्थभूत वस्तुकी न तो कभी उत्पत्ति होती है, और न उसकी स्थिति भी कहीं देखी जाती है । खरविषाणकी उत्पत्ति और स्थिति कभी नहीं होती है । उत्पत्ति और स्थितिके अभावमें विनाशकी तो कल्पना ही नहीं की जा सकती है। न तो सजातीय-विजातीयव्यावृत्त तथा क्षणिक परमाणुओंका सद्भाव सिद्ध होता है और न स्कन्धोंका ही, तो विसदश कार्यको उत्पत्ति के लिए हेतुका समागम कैसे हो सकता है। यदि किसी पदार्थका अस्तित्व होता
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