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________________ २२० आप्तमीमांसा [परिच्छद-३ उत्पत्ति होती है । यदि सदृश और विसदृशका विभाग भी लोगोंके अभिप्राय के अनुसार किया जाय तो नाशको भी सहेतुक क्यों नहीं माना जाता। यथार्थमें नाश और उत्पाद न तो परस्परमें भिन्न हैं और न आश्रयसे भी भिन्न हैं। कहा भी है 'नाशोत्पादौ समं यद्वन्नामोन्नामौ तुलान्तयोः ।' जिस प्रकार तराजूमें नाम और उन्नाम (एक पलड़े का ऊँचा रहना और दूसरेका नीचा रहना) एक साथ होते हैं, उसी प्रकार नाश और उत्पाद भी युगपत् होते हैं। जब नाश और उत्पाद अभिन्न हैं, और एक साथ होते हैं, तो एक सहेतुक हो और दूसरा निर्हेतुक हो यह कैसे हो सकता है। ___ नाश और उत्पाद उसी प्रकार अभिन्न हैं जिस प्रकार विज्ञानवादियोंके यहाँ ज्ञानके ग्राह्याकार और ग्राहकाकार अभिन्न हैं । ग्राह्याकार और ग्राहकाकारमें शब्दभेद और ज्ञानभेद होनेपर भी दोनोंमें तादात्म्य होनेसे दोनों एक हैं। इसी प्रकार नाश और उत्पाद भी एक हैं। संज्ञा (प्रत्यभिज्ञा), छन्द (अभिलाषा), मति, स्मृति आदि की तरह भेद होनेपर भी एक कालमें होनेवाले नाश और उत्पादमेंसे एक सहेतुक हो और दूसरा निर्हेतुक हो, यह कैसे संमव है। यद्यपि नाश और उत्पादमें भेद है, फिर भी एककालभावी होनेसे जो मुद्गर कपालकी उत्पत्तिका कारण होता है वही घटके विनाशका भी कारण होता है। रूप और रस सहभावी हैं । अतः जो रूपकी उत्पत्तिका कारण होता है। वह रस की उत्पत्तिका भी कारण होता है। पूर्वरूप उत्तररूपकी उत्पत्तिका ही कारण नहीं होता है, किन्तु उत्तर रसकी उत्पत्तिका भी कारण होता है। पूर्व रस उत्तर रसकी उत्पत्तिका ही कारण नहीं होता है, किन्तु उत्तर रूपकी उत्पत्तिका भी कारण होता है। अतः समकालभावी विनाश और उत्पाद दोनों सहेतुक हैं और दोनोंका हेतु एक ही होता है। बौद्ध कहते हैं कि विनाशके हेतुसे विनाशका कुछ नहीं होता है, केवल पदार्थ नहीं होता है, तो फिर उत्पादके हेतुसे भी उत्पादका कुछ नहीं होता है, केवल पदार्थ हो जाता है, ऐसा कहने में क्या विरोध है। जिस प्रकार विनाशका हेतु भावको अभावरूप करता है, उसी प्रकार उत्पादका हेतु अभावको भावरूप करता है। अतः उत्पादके हेतुकी तरह विनाशका भी हेतु अकिंचित्कर नहीं है। बौद्धों द्वारा सहेतुक विनाशमें भिन्न-अभिन्न विकल्पको लेकर जो दूषण दिया जाता है, वह सहेतुक उत्पादमें भी दिया जा सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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