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________________ कारिका-५३] तत्त्वदीपिका २१९ बौद्धोंका कहना है कि लोग जिसको विनाशका कारण कहते हैं उससे यथार्थमें पदार्थका विनाश नहीं होता है, किन्तु विसदृश कार्यकी उत्पत्ति होती है । मुद्गर घटके नाशका कारण नहीं है, किन्तु कपालोंकी उत्पत्तिका कारण है । सम्यक्ज्ञान आदि आठ अंग चित्तसंततिके नाशके कारण नहीं हैं किन्तु मोक्षकी उत्पत्तिके कारण हैं। इस प्रकार यदि विसदृश कार्यकी उत्पत्तिके लिए हेतुका समागम होता है, तो हेतुको नाश और उत्पादसे अभिन्न मानना होगा । नाश और उत्पाद भी अभिन्न हैं, क्योंकि पूर्व पर्यायके नाशका नाम ही उत्तर पर्यायकी उत्पत्ति है। नाश और उत्पाद आश्रयी हैं और हेतु उनका आश्रय है। जब नाश और उत्पाद अभित्र हैं, तो उनका आश्रय हेतु भी उनसे अभिन्न ही होगा। जैसे शिशपात्व और वृक्षत्व ये दोनों अभिन्न हैं, तो उनकी उत्पत्तिका कारण भी एक ही होता है। ऐसा नहीं है कि शिशपात्वकी उत्पत्ति किसी दूसरे कारणसे होती हो और वृक्षत्वकी उत्पत्ति किसी दूसरे कारणसे । अतः पदार्थके नाश और उत्पत्तिका भी एक ही कारण होना चाहिए। बौद्ध विनाशको अहेतुक कहते हैं, क्योंकि विसदृश कार्यकी उत्पत्तिका जो हेतु है, उससे भिन्न विनाशका कोई हेतु नहीं है। यहाँ इससे विपरीत भी कहा जा सकता है कि विनाशके हेतुको छोड़कर विसदृश कार्यकी उत्पत्तिका अन्य कोई हेतु न होनेसे विसदृश कार्यकी उत्पत्ति अहेतुक है। यदि माना जाय कि विसदृश सन्तानकी उत्पत्तिके लिए हेतुका समागम होता है, प्रध्वंसके लिए नहीं, क्योंकि प्रध्वंस तो स्वभावसे हो जाता है, तो विसदश (कपालरूप) पदार्थकी उत्पत्ति भी स्वभावसे क्यों नहीं हो जाती। जिस प्रकार विनाशका हेतु अकिंचित्कर है, उसी प्रकार उत्पत्तिका हेतु भी अकिंचित्कर है। यह कहना भी ठीक नहीं है कि उत्पत्ति भी स्वभावसे ही होती है, किन्तु कारणके समागमके बाद होनेसे उसको सहेतुक कहते हैं। क्योंकि इस प्रकार विनाशको भी सहेतुक मानना होगा। विनाश भी तो कारणके समागमके बाद होता है । यदि लोगोंका अभिप्राय उत्पत्तिको सहेतुक कहनेका है, इसलिए उत्पत्तिको सहेतुक कहा जाता है, तो लोगोंका अभिप्राय विनाशको भी तो सहेतुक कहनेका है, फिर विनाशको सहेतुक क्यों नहीं कहा जाता। निरन्वय विनाशवादियोंके यहाँ सदश और विसदृशका विभाग भी नहीं हो सकता है, जिससे कि विसदृश कार्यकी उत्पत्तिके लिए हेतुका समागम माना जाय । क्योंकि निरन्वय विनाशमें सदा विसदृश कार्यकी ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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