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आप्तमीमांसा
परिच्छेद- ३
तो उसकी उत्पत्ति होती और उत्पत्तिका हेतु भी माना जाता । किन्तु जहाँ कोई भी परमार्थभूत तत्त्व नहीं है, सब कुछ संवृतिरूप है, तो वहाँ न उत्पत्ति है और न विनाश | विनाशको निर्हेतुक कहना और उत्पत्तिको सहेतुक कहना वन्ध्यासुत के सौभाग्यवर्णनके समान ही है । इस प्रकार क्षणिकान्त नित्यैकान्तकी तरह प्रतीतिविरुद्ध एवं अश्रेयस्कर होनेसे सर्वथा त्याज्य है ।
उभयैकान्त और अवाच्यतैकान्तमें दोष बतलाने के लिए आचार्य कहते हैं
विरोधान्नोभयैकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम् ।
अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नावाच्यमिति
युज्यते ॥ ५५ ॥ स्याद्वादन्याय से द्वेष रखने वालोंके यहाँ विरोध आनेके कारण उभयैकात्म्य नहीं बन सकता है । और अवाच्यतैकान्त माननेमें भी अवाच्य शब्दका प्रयोग नहीं हो सकता है ।
सर्वथा एकान्तवादियोंके यहाँ उभयैकान्त ( नित्यैकान्त और क्षणिकैान्त ) संभव नहीं है । जो सर्वथा नित्य है वह क्षणिक नहीं हो सकता है, और जो सर्वथा क्षणिक है वह नित्य नहीं हो सकता है । नित्यैकान्त और क्षणिकान्त में विरोध होनेसे उभयैकात्म्य कैसे हो सकता है । जैसे जीवन और मरण ये परस्पर विरोधी दो बातें एक साथ संभव नहीं हैं, वैसे ही उभयकान्त भी संभव नहीं है । उक्त दोषोंसे भयभीत होकर जो लोग तत्त्वको सर्वथा अवाच्य मानते हैं, उनका मानना भी ठीक नहीं है । यदि तत्त्व सर्वथा अवाच्य है, तो उसको अवाच्य शब्दके द्वारा कैसे कहा जा सकता है । इस प्रकार सर्वथा एकान्तवादियों के यहाँ उभयैकान्त और अवाच्यतैकान्तकी मान्यता भी काल्पनिक है ।
नित्यैकान्त और क्षणिककान्तका खण्डन करके अनेकान्तकी सिद्धि करनेके लिए आचार्य कहते हैं
नित्यं तत्प्रत्यभिज्ञानान्नाकस्मात्तदविच्छिदा । क्षणिक कालभेदात्ते बुद्धयसंचरदोषतः ॥ ५६ ॥
प्रत्यभिज्ञानका विषय होनेके कारण तत्त्व कथंचित् नित्य है । प्रत्यभिज्ञानका सद्भाव विना किसी कारणके नहीं होता है, क्योंकि अविच्छेदरूपसे वह अनुभव में आता है । हे भगवन् ! आपके अनेकान्त मतमें कालभेद होनेसे तत्त्व कथंचित् क्षणिक भी है । सर्वथा नित्य और सर्वथा क्षणिक तत्त्वमें बुद्धिका संचार नहीं हो सकता है ।
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