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________________ कारिका -४६-४७ ] बौद्धोंको उत्तर देते तत्त्वदीपिका हुए आचार्य कहते हैं-अवक्तव्य चतुष्कोटिविकल्पोऽपि न कथ्यताम् । असर्वान्तमवस्तु स्यादविशेष्यविशेषणम् ॥ ४६ ॥ बौद्ध वस्तु सत् आदि चार प्रकारके विकल्पको अवक्तव्य नहीं कहना चाहिए । जो सर्व धर्म रहित है वह अवस्तु है, और उसमें विशेष्यविशेषणभाव भी नहीं बन सकता है । बौद्ध स्वलक्षणको अवक्तव्य मानते हैं । और उसमें सत् आदिका विकल्प करके अवक्तव्यत्वकी सिद्धि करते हैं । स्वलक्षण सत् है, असत् है, उभयरूप है या अनुभयरूप है ? स्वलक्षण 'सत् है' ऐसा नहीं कह सकते हैं, 'असत् है' ऐसा भी नहीं कह सकते हैं, उभयरूप तथा अनुभयरूप भी नहीं कहा जा सकता है । अतः चारों प्रकारसे वक्तव्य न होनेसे स्वलक्षण अवक्तव्य है । इस प्रकार बौद्ध स्वलक्षमें चार प्रकारका विकल्प करके उसको अवक्तव्य कहते हैं । यहाँ यह विचारणीय है कि यदि स्वलक्षण सर्वथा अवक्तव्य है, तो 'वह सत् रूपसे अवक्तव्य है, असत् रूपसे अवक्तव्य है, उभयरूपसे अवक्तव्य है, और अनुभयरूपसे अवक्तव्य है' ऐसा चार प्रकारका विकल्प नहीं किया जा सकता है' और यदि स्वलक्षणमें उक्त चार प्रकारका विकल्प किया जाता है, तो उसमें कथंचित् अभिलाप्यत्व भी मानना होगा। क्योंकि जो वस्तु वक्तव्य, अवक्तव्य आदि सब प्रकार के विकल्पोंसे रहित है, वह अवस्तु हो जायगी । इस प्रकार जो पदार्थ सर्व धर्मोसे रहित है । वह न तो विशेष्य हो सकता है, और न उसका कोई विशेषण हो सकता है । अर्थात् सर्वथा असत् पदार्थ न तो विशेष्य हो सकता है, और न अनभिलाप्य उसका विशेषण हो सकता है । गगनकुसुम न तो विशेष्य है, और न उसका कोई विशेषण है । ऐसी किसी भी वस्तुका प्रत्यक्षसे ज्ञान नहीं होता है, जो न तो विशेष्य हो और न उसका कोई विशेषण हो । अवस्तु विधि और निषेध भी संभव नहीं है, इस बात को बतलानेके लिए आचार्य कहते हैं द्रव्याद्यन्तरभावेन निषेधः संज्ञिनः सतः । असद्ध दो न भावस्तु स्थानं विधिनिषेधयोः ॥४७॥ २११ विद्यमान संज्ञीका दूसरे द्रव्य आदिकी अपेक्षासे निषेध होता है । जो सर्वथा असत है, वह विधि और निषेधका स्थान नहीं हो सकता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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