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________________ २१० आप्तमीमांसा [परिच्छेद-३ अर्थ होनेसे सन्तान संवृत्तिरूप नहीं हो सकती है। उसे वास्तविक मानना होगा। और यदि सन्तान संवृत्तिरूप है तो वह मुख्य न होकर उपचाररूप ही होगी। किन्तु उपचारसे भी सन्तानकी कल्पना संभव नहीं है, क्योंकि मुख्य अर्थके अभावमें उपचार नहीं होता है । उपचरित पदार्थसे मुख्य अर्थका कार्य भी नहीं होता है । बालकमें उपचारसे अग्निका व्यवहार करनेपर बालकसे पाक आदि क्रिया संभव नहीं है। उपचरित सन्तान अन्य क्षणोंमें अनन्य प्रत्ययका कारण नहीं हो सकती है। और पथक-पृथक क्षणोंमें अनन्य प्रत्यय भी संभव नहीं है। और अनन्य प्रत्ययके अभावमें संतानको सिद्धि किसी भी प्रकार नहीं हो सकती है । यहाँ बौद्ध कहते हैं कि सन्तान न तो सन्तानियोंसे भिन्न है, और न अभिन्न, न उभयरूप है, और न अनुभयरूप, वह तो अवाच्य है। तथाहि चतुष्कोटेर्विकल्पस्य सर्वान्तेषक्त्ययोगतः । तत्त्वान्यत्वमवाच्यं चेत्तयोः संतानतद्वतोः ।।४५।। सत्त्व आदि सब धर्मों में चार प्रकारका विकल्प नहीं हो सकता है । अतः सन्तान और सन्तानियोंमें एकत्व और अन्यत्व अवाच्य है । बौद्धोंका कहना है कि प्रत्येक धर्ममें चार प्रकारके विकल्प हो सकते हैं। ओर वे इस प्रकार होते हैं-वस्तु सत् है, असत् है, उभय है, या अनुभय है । यदि सत् है, तो उसकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है । असत् है, तो शून्यताको प्राप्ति होती है। उभयरूप माननेमें दोनों पक्षोंमें दिये गये दूषण आते हैं। अनुभयरूप मानना भी ठीक नहीं है। क्योंकि एक धर्मका निषेध होनेपर दूसरेका विधान स्वतः प्राप्त होता है। दोनों धर्मोका निषेध संभव नहीं है। फिर भी दोनों धर्मोका निषेध माना जाय तो वस्तु निःस्वभाव हो जायगी। सन्तानको भी सन्तानियोंसे अभिन्न माननेपर सन्तानी ही रहेंगे, और भिन्न माननेपर 'यह इनकी सन्तान है' ऐसा विकल्प भी नहीं हो सकता है। उभयरूप माननेमें उभय पक्षोंमें दिये गये दुषण आते हैं। और अनुभयरूप मानने में सन्तान और सन्तानी दोनों निःस्वभाव हो जाँयगे। इसलिए सन्तान और सन्तानियोंमें जो भिन्न, अभिन्न आदि विकल्प किये गये हैं वे ठीक नहीं हैं। सन्तान सन्तानियोंसे भिन्न है, या अभिन्न ? इस विषयमें यही कहा जा सकता है कि सन्तान सन्तानियोंसे न तो भिन्न है, और न अभिन्न है, किन्तु अवाच्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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