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कारिका-४४] तत्त्वदीपिका
२०९ संन्तानके विषयमें अन्य दूषणोंको बतलानेके लिए आचार्य कहते हैं
अन्येप्वनन्यशब्दोऽयं संवृतिर्न मृषा कथम् ।
मुख्यार्थः संवृतिर्न स्याद् विना मुख्यान्न संवृतिः ॥४४। पृथक्-पृथक् क्षणोंमें अनन्य शब्द (सन्तान)का व्यवहार संवृति है, और संवृत्ति होनेसे वह मिथ्या क्यों नहीं है। मुख्य अर्थ संवृतिरूप नहीं होता है, और मुख्य अर्थके विना संवृति नहीं हो सकती है ।
प्रत्येक पदार्थके समस्त क्षण परस्परमें नितान्त पृथक् हैं। घटके जितने क्षण हैं वे एक दूसरेसे पृथक् हैं, पटके समस्त क्षण भी एक दूसरेसे पृथक् हैं। यही बात समस्त पदार्थोंके क्षणोंके विषय में है। सब क्षण पृथक् पृथक् होनेसे अन्य हैं। उन अन्य क्षणोंमें अनन्य (अभिन्न अथवा एक) की कल्पना करनेका नाम सन्तान है । अर्थात् पृथक-पृथक क्षणोंको एक मान लेना सन्तान है । इस प्रकारकी सन्तानकी कल्पना केवल संवृति (उपचार) से ही हो सकती है। जो बात उपचारसे मानी जाती है, वह मुख्य नहीं होती है, और न वह मुख्य अर्थक अभावमें होती है। बालकको उपचारसे सिंह कह देते हैं-'सिंहोऽयं माणवकः' यहाँ मुख्य सिंहके सद्भावमें ही बालकमें सिंहका उपचार संभव है। जब क्षणिकैकान्तमें कुछ भी अनन्य नहीं है, तो वहाँ अनन्य शब्दका व्यवहार कैसे हो सकता है। अतः मुख्यार्थके अभावमें उपचाररूप सन्तानकी कल्पना मिथ्या या असत्य ही है।
यह भी प्रश्न है कि संतान संतानियों (पृथक्-पृथक् क्षणों) से अनन्य है या अन्य । बौद्ध संतानको संतानियोंसे अनन्य मानते हैं । किन्तु संतानको संतानियोंसे अभिन्न माननेमें या तो केवल संतान ही रहेगी या संतानी ही । चित्तक्षणोंकी संन्तानको यदि सन्तानियोंसे भित्र माना जाय तो आत्माका ही दूसरा नाम सन्तान होगा। यहाँ भी सन्तानियोंसे भित्र सन्तान नित्य है या अनित्य, इस प्रकार दो विकल्प होते हैं। नित्यपक्ष तो स्वयं बौद्धोंको इष्ट नहीं है। अनित्य पक्षमें भी सन्तानियोंसे भित्र सन्तानमें अनन्य व्यवहार कैसे किया जा सकता है। अन्यों में अनन्य व्यवहार केवल संवृत्तिसे ही किया जाता है। इस प्रकार कल्पनासे किया गया अन्योंमें जो अनन्य व्यवहार है, वह मिथ्या ही है। और मिथ्या व्यवहार द्वारा कार्य-कारण सम्बन्ध आदिकी व्यवस्था भी नहीं हो सकती है। यदि सन्तानको काल्पनिक न मानकर मुख्य माना जाय तो मुख्य
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