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________________ २०८ आप्तमीमांसा [परिच्छेद-३ हैं। क्योंकि कारणसे कार्य संतानान्तरके समान सर्वथा पृथक् है । संतानियोंसे पृथक् कोई एक सन्तान भी नही है । यह पहले विस्तारपूर्वक बतलाया गया है कि क्षणिकैकान्तमें अन्वयका सर्वथा अभाव है । अन्वयके अभावमें हेतुफलभाव, वास्यवासकभाव, कर्मफलभाव, प्रवृत्ति, निवृत्ति आदि कुछ भी नहीं बन सकते हैं । क्योंकि जिन पदाथोंमें उक्त सम्बन्ध संभव है, वे पदार्थ अन्वयके अभावमें एक दूसरेसे सर्वथा पथक् हैं। यह कहना भी ठीक नहीं है कि प्रत्येक पदार्थमें एक सन्तान पायी जाती है, जिसके कारण पदार्थोंमें हेतुफलभाव आदि सम्बन्ध बन जाते हैं। क्योंकि अन्वयके अभावमें जैसे एक सन्तानका दूसरी सन्तानके साथ सम्बन्ध नहीं है, उसी प्रकार एक संतानके अनेक क्षणोंमें भी कोई सम्बन्ध नहीं है। बौद्ध प्रत्येक पदार्थकी सन्तान मानते हैं ।घट प्रत्येक क्षणमें नष्ट होता रहता है, किन्तु घटकी एक पृथक् सन्तान चलती रहती है, और पटकी एक पृथक् सन्तान चलती रहती है। घटके क्षण-क्षणमें नष्ट होनेपर भी एक सन्तानके कारण एक घटसे उसके सदृश दूसरे घटकी उत्पत्ति होती है, पटकी नहीं, क्योंकि घटकी सन्तानसे पटकी सन्तान भिन्न है। बौद्ध एक सन्तानके पूर्वापर क्षणोंमें तो कार्यकारणभाव मानते हैं, किन्तु एक संतानके पूर्व क्षणका अन्य सन्तानके उत्तर क्षणके साथ कार्यकारणभाव नहीं मानते हैं। किन्तु जैसे भिन्न सन्तानवर्ती क्षणोंमें कार्यकारणभाव नहीं हो सकता है, वैसे ही एक सन्तानके पूर्वापर क्षणों में भी कार्यकारणभाव नही हो सकता है। क्योंकि एक सन्तानका प्रथम क्षण दूसरे क्षणसे सर्वथा पृथक् है, जैसे कि एकन्तानके प्रथम क्षणसे दूसरी सन्तानका द्वितीय क्षण सर्वथा पृथक् है । संतानियोंसे पृथक् कोई एक सन्तान भी सिद्ध नहीं होती है। स्वयं बौद्धोंने सन्तानियोंको ही सन्तान माना है। सब क्षणोंके अत्यन्त विलक्षण होनेपर भी उनमें पृथक-पृथक अनेक सन्तानोंकी कल्पना करना और उन सन्तानोंके द्वारा कार्य-कारणभाव, कर्मफल अदिको मानना ऐसा ही है, जैसे कोई शषविषाणमें गोल आकार आदिकी कल्पना करे। जिस अर्थकी प्रतीति ही नहीं होती है, उस अर्थकी कल्पना करना, उसकी सन्तान मानना और फिर सन्तानके द्वारा कार्य-कारण अदि सम्बन्धोंका सद्भाव सिद्ध करना, वैसा ही है, जेसे वन्ध्यापुत्रमें रूप, लावण्य, ज्ञान आदिका सद्भाव सिद्ध करना। क्योंकि सन्तानकी सिद्धि प्रत्यक्ष आदि किसी प्रमाणसे नहीं होती है। इस प्रकार सन्तानके अभावमें सन्तान द्वाराकी गयी कोई भी व्यवस्था नहीं बन सकती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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