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आप्तमीमांसा
[परिच्छेद-३
जो पदार्थ अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षासे सत् है, उसका दूसरे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षासे निषेध होता है । जो अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षासे भी सर्वथा असत् है, उसकी न तो विधि ही हो सकतो है, और न प्रतिषेध ही। सर्वथा असत् पदार्थका अस्तित्व असंभव होनेसे उसकी विधि । सद्भाव ) असंभव ही है। और विधिके अभावमें उसका प्रतिषेध भी संभव नहीं है। क्योंकि प्रतिषेध विधिपूर्वक ही होता है। जो पदार्थ कथंचित् अभिलाप्य है, उसमें अभिलाप्चत्वका निषेध करके कथंचित् अनभिलाप्यत्व सिद्ध किया जाता है। जो कथंचित् विशेषण-विशेष्यरूप है, वही कथंचित् अविशेषण-अविशेष्यरूप होता है, अतः एकान्तरूपसे न तो कोई अनभिलाप्य है, और न अविशेषण-अविशेष्यरूप है। जो अभिलाप्य है, उसको अनभिलाप्य मानने में और जो विशेषण-विशेष्यरूप है, उसको अविशेषण-अविशेष्यरूप माननेमें कोई विरोध नहीं है। बौद्ध स्वयं स्वलक्षणको अनिर्देश्य मानकर अनिर्देश्य शब्दके द्वारा निर्देश्य मानते हैं। यह कहना भी ठीक नहीं है कि अभाव अनभिलाप्य है। क्योंकि जहाँ अभावका कथन किया जाता है, वहाँ भावका भी कथन होता है । अभाव सर्वथा अभावरूप नहीं होता है, किन्तु भावान्तररूप होता है । जब कोई कहता है कि यहाँ घट नही है, इसका अर्थ यह होता है कि यहाँ घटरहित भूतलका सद्भाव है। घटाभावका अर्थ है घटरहित भूतल । इसी प्रकार जहाँ भावका कथन किया जाता है, वहाँ अभावका कथन भी होता है। 'यह घट है' ऐसा कहनेपर 'घट पट नहीं है' ऐसा तात्पर्य स्वयं फलित हो जाता है। अतः यह सिद्ध होता है कि भाववाचक शब्दोंके द्वारा अभावका और अभाववाचक शब्दोंके द्वारा भावका कथन होता है ।
इस प्रकार स्वद्रव्य आदिकी अपेक्षासे जो सत् है, वही विधि और निषेधका विषय होता है। सर्वथा असत् पदार्थमें विधि और निषेधका होना असंभव है।
बौद्धों द्वारा माना गया तत्त्व सब धर्मोंसे रहित होनेके कारण अवस्तु है, और अनभिलाप्य है, इस बातको बतलाने के लिए आचार्य कहते
अवस्त्वनभिलाप्यं स्यात् सर्वान्तः परिवर्जितम् ।
वस्त्वेवावस्तुतां याति प्रक्रियाया विपर्ययात् ॥४८॥ जो सर्व धर्मोसे रहित है वह अवस्तु है, और अवस्तु होनेसे वह अन
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