SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 316
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कारिका-३९] तत्त्वदीपिका गयी प्रमितिरूप अभिव्यक्ति नित्य हो जायगी। कारक भी नित्य नहीं है। अन्यथा उसके द्वारा महत् आदिमें की गयी उत्पत्तिरूप अभिव्यक्ति नित्य हो जायगी। ऐसी स्थितिमें व्यक्तको प्रमाण और कारकोंसे अभिव्यक्त नहीं कह सकते, क्योंकि जो पहले अनभिव्यक्त हो उसोकी व्यंजकके व्यापारसे अभिव्यक्ति होती है। प्रमाण और कारकोंसे अभिव्यक्त होने वाला व्यक्त ( महदादि ) भी नित्य नहीं हो सकता है, क्योंकि अनभिव्यक्त आकारको छोड़कर अभिव्यक्त आकारको ग्रहण करनेसे उसमें अनित्यत्वकी प्राप्ति स्वाभाविक है। यदि व्यक्त प्रमाण और कारकोंका व्यापार होनेपर भी अपने अनभिव्यक्त आकारको नहीं छोड़ता है, तो उसको अभिव्यक्त ही नहीं कह सकते । चक्षु इन्द्रियके द्वारा किसी अर्थका ज्ञान होनेपर वह अर्थ अभिव्यक्त कहा जाता है। उस अर्थमें भी कथंचित् परिवर्तन मानना ही पड़ता है, अन्यथा उस अर्थका ज्ञान ही नहीं हो सकता है। यदि प्रमाण और कारक सर्वथा नित्य हैं, तथा व्यंग्य महदादि भी सर्वथा नित्य हैं, तो न प्रमाण और कारक उसके अभिव्यंजक हो सकते हैं, और न महदादि व्यंग्य ही हो सकते हैं। दीपक रात्रिमें घटका व्यंजक होता है, और घट व्यंग्य होता है । घट अनभिव्यक्त्त स्वभावको छोड़कर अभिव्यक्त स्वभावको धारण करता है, दीपक अव्यञ्जक स्वभावको छोड़कर व्यञ्जक स्वभावको ग्रहण करता है । व्यंजक और व्यंग्य दोनोंको कथंचित् अनित्य माननेसे ही इष्ट तत्त्वकी सिद्धि होती है, अन्यथा नहीं । सांख्यके यहाँ प्रमाण, कारक, महत् आदि सब नित्य हैं। तब उनमें व्यंग्य-व्यंजकभाव कैसे हो सकता है। कथंचित् अपूर्व पर्यायकी उत्पत्तिके अभावमें व्यंग्य अथवा कार्य विकार्य नहीं कहा जा सकता है । इस प्रकार सांख्यमतमें सब पदार्थोंके सर्वथा नित्य होनेसे उनमें व्यंग्य-व्यंजकभाव किसी प्रकार संभव नहीं है । ऐसा मानना ठीक नहीं है कि प्रधान कारण है, और महदादि उसके कार्य हैं। क्योंकि कार्यके विषयमें दो विकल्प होते हैं-कार्य सत् है, अथवा असत् । दोनों पक्षोमें दूषण दिखलाते हुए आचार्य कहते हैं यदि सत्सर्वथा कार्य पुंवन्नोत्पत्तुमर्हति । परिणामप्रक्लूप्तिश्च नित्यत्वैकान्तबाधिनी ॥३९।। यदि कार्य सर्वथा सत् है, तो पुरुषके समान उसकी उत्पत्ति नहीं हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy