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________________ १९८ आप्तमीमांसा [ परच्छेद- ३ आकारके तिरोभाव और दूसरे आकारके आविर्भावका अर्थ नाश और उत्पत्ति ही है । नाश और उत्पत्तिको तिरोभाव और आविर्भाव नामसे कहने में कोई आपत्ति नहीं है । अर्थ तो वही रहा, केवल नाममें ही भेद हुआ । उत्पत्ति और नाशकी सिद्धि प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे भी होती है । प्रत्यक्षसे यह अनुभवमें आता है कि पदार्थ उत्पन्न और नष्ट होते है । | सांख्यमतमें प्रकृति और पुरुष ये दो मुख्य तत्त्व माने गये हैं । ये दोनों ही कूटस्थ नित्य हैं । प्रकृति से महत् आदि २३ तत्त्वोंकी उत्पत्ति होती है, जिनको व्यक्त कहते हैं । और प्रकृतिको अव्यक्त कहते हैं । पुरुषको सर्वथा नित्य मानना प्रमाण विरुद्ध है । क्योंकि पुरुषको सर्वथा नित्य होनेसे उसमें किसी भी प्रकारकी विक्रिया नहीं हो सकेगी । और विक्रियाके अभाव में संसार, बन्ध, मोक्ष आदि सबका अभाव हो जायगा । पुरुषकी तरह प्रधान भी सर्वथा नित्य नहीं है । प्रधानको सर्वथा नित्य माननेसे उसके द्वारा महत् आदिकी उत्पत्ति नहीं हो सकेगी । तथा अव्यक्तको नित्य माननेसे अव्यक्त से अभिन्न व्यक्त भी नित्य होगा । यदि नित्यसे अभिन्न वस्तुको अनित्य माना जाय तो पुरुषसे अभिन्न चैतन्यको भी अनित्य मानना पड़ेगा । और यदि व्यक्तको भी सर्वथा नित्य माना जाय तो उसमें प्रमाण, कारक आदिका व्यापार न हो सकनेसे उसका ज्ञान भी नहीं हो सकेगा । इस प्रकार सांख्यका सर्वथा नित्यत्वैकान्त युक्ति तथा प्रमाणविरुद्ध है । व्यक्त और प्रमाण आदिमें व्यंग्य - व्यञ्जकभाव मानना भी ठीक नहीं हैं । इसी बात को बतलाने के लिए आचार्य कहते हैं प्रमाणकारकैर्व्यक्तं व्यक्तं चेदिन्द्रियार्थवत् । तेच नित्ये विकार्यं किं साधोःस्ते शासनाद्बहिः ||३८|| यदि महदादि व्यक्त पदार्थ प्रमाण और कारकोंके द्वारा अभिव्यक्त होते हैं, जैसे कि इन्द्रियोंके द्वारा अर्थ अभिव्यक्त होता है, तो प्रमाण और कारक दोनोंको नित्य होनेसे अनेकान्त शासन से बाहर कोई भी वस्तु विकार्य कैसे हो सकती है । प्रमाणके द्वारा जो अभिव्यक्ति होती है, उसको प्रमिति कहते हैं, और कारकोंके द्वारा जो अभिव्यक्ति होती है, उसको उत्पत्ति कहते हैं | प्रमाण नित्य नहीं है । अन्यथा उसके द्वारा महत्, अहंकारादिमें की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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