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________________ २०० आप्तमीमांसा [परिच्छेद-३ सकती है। और उत्पत्ति न मानकर कार्य में परिणामकी कल्पना करना नित्यत्वैकान्तकी बाधक है। ___जो सर्वथा सत् है, वह कार्य नहीं हो सकता है, जैसे कि चैतन्य । चैतन्यको सांख्य कार्य नहीं मानते हैं, अन्यथा चैतन्यस्वरूप पुरुषको भी कार्य मानना पड़ेगा । जो सर्वथा सत् है, कथंचित् भी असत् नहीं है, उसमें कार्यत्वकी सिद्धि संभव नहीं है । और जो सर्वथा असत् है, वह भी कार्य नहीं हो सकता है। गगनकुसुम किसीका कार्य नहीं है। सांख्य कार्यको असत् न मानकर सत् ही मानते हैं । उनका कहना है __ असदकरणादुपादानग्रहणात् सर्वसंभवाभावात् । शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावाच्च सत्कार्यम् ॥ कार्यको सत् सिद्ध करनेके लिए सांख्यने पाँच हेतु दिये हैं १. 'असदकरणत्' असत्की कभी उत्पत्ति नहीं होती है। यदि असत्की भी उत्पत्ति होने लगे तो गगनकुसुम, वन्ध्यापुत्र आदि की भी उत्पत्ति होना चाहिए । २. 'उपादानग्रहणात्' प्रत्येक कार्यकी उत्पत्तिके लिए नियत उपादानका ग्रहण किया जाता है। तेलके लिए तिलोंकी और दधिके लिए दूधकी आवश्यकता होती है। इससे प्रतीत होता है कि तिलोंमें तेल और दूधमें दधि पहिलेसे ही विद्यमान रहता है। यदि ऐसा न होता तो बालूसे तेल और जलसे दधिकी उत्पत्ति होना चाहिए । ३. 'सर्वसंभवाभावात्' सबसे सबका संभव नहीं होता है। यदि कार्य असत् होता तो किसी भी कारणसे किसी भी कार्यकी उत्पत्ति हो जाना चाहिए। ४. 'शक्तस्य शक्यकरणात्' समर्थ कारणसे समर्थ कार्यकी उत्पत्ति होती है। यदि कार्य असत् होता तो असमर्थ कारणसे भी समर्थ कार्यकी उत्पत्ति होना चाहिए । ५. कारणभावाच्च' कारणका सद्भाव पाया जाता है, इसलिए भी कार्यको सत् मानना आवश्यक है। क्योंकि कार्य-कारणभाव विद्यमान पदार्थोंमें ही होता है, अविद्यमान पदार्थों में नहीं । तथा एक विद्यमान और दूसरे अविद्यमानमें भी कार्यकारणाव नहीं होता है। ___ अब प्रश्न यह है कि यदि कार्य असत् नहीं है, तो कैसा है । सांख्यका यह कहना भी ठीक नहीं है कि कार्य विवर्त या परिणामरूप है। क्योंकि पूर्वं आकारके त्याग और उत्तर आकारकी उत्पत्तिका नाम ही विवर्त या परिणाम है। और ऐसा मानने पर एकान्तवादका त्याग करना ही पड़ता है। सांख्यका कहना है कि महदादिमें नित्यत्वका प्रतिषेध होनेसे उनका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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