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द्वितीय परिच्छेद
सत् आदि एकान्तोंमें दोषोंको बतलाकर अद्वैतैकान्तमें दूषण बतलाने के लिए आचार्य कहते हैं
अद्वैतैकान्तपक्षेऽपि दृष्टो भेदो विरुध्यते । कारकाणां क्रियायाथ नैकं स्वस्मात् प्रजायते ॥ २४॥
अद्वैत पक्ष में भी कारकों और क्रियाओंमें जो प्रत्यक्ष सिद्ध भेद है उसमें विरोध आता है । क्योंकि एक वस्तु स्वयं अपनेसे उत्पन्न नहीं हो सकती है ।
जहाँ केवल एक ही वस्तुका सद्भाव माना जाता है वह अद्वैतैकान्त पक्ष कहलाता है । कुछ लोग केवल ब्रह्मकी ही सत्ता मानते हैं, अन्य लोग केवल ज्ञानकी ही सत्ता मानते हैं, दूसरे लोग शब्दकी ही सत्ता मानते हैं । इस प्रकार ब्रह्माद्वैत, ज्ञानाद्वैत, शब्दाद्वैत इत्यादि रूपसे अनेक अद्वैत माने गये हैं । यहाँ सामान्यरूपसे अद्वैतैकान्त पक्षमें दूषण बतलाये जायगे ।
कारकों तथा क्रिया आदिमें जो भेद पाया जाता है वह सर्वजन प्रसिद्ध है । कर्ता, कर्म, करण आदि कारक कहलाते हैं । गमन, आगमन, परिस्पन्दन आदि क्रिया है । प्रत्येक कार्यकी उत्पत्ति भिन्न-भिन्न कारकोंसे होती है । और प्रत्येक पदार्थमें क्रिया भी भिन्न-भिन्न पायी जाती है । यह कारक इस कारकसे भिन्न है, यह क्रिया इस क्रियासे भिन्न है, अथवा क्रिया कारकसे भिन्न है, इस प्रकार क्रिया और कारकोंमें जो भेद प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे देखा जाता है वह प्रत्येक व्यक्तिको अनुभव
सिद्ध है | और यह भेद अद्वैतैकान्तका बाधक है ।
यहाँ अद्वैतैकान्तवादी कहता है कि अद्वैत में भी कारक आदिका भेद बन जाता है। एक ही वृक्षमें युगपत् या क्रमसे कर्ता आदि अनेक कारकों
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